अथैवं ज्ञानमर्थेषु वर्तत इति संभावयति —
रयणमिह इंदणीलं दुद्धज्झसियं जहा सभासाए ।
अभिभूय तं पि दुद्धं वट्टदि तह णाणमट्ठेसु ।।३०।।
रत्नमिहेन्द्रनीलं दुग्धाध्युषितं यथा स्वभासा ।
अभिभूय तदपि दुग्धं वर्तते तथा ज्ञानमर्थेषु ।।३०।।
यथा किलेन्द्रनीलरत्नं दुग्धमधिवसत्स्वप्रभाभारेण तदभिभूय वर्तमानं दृष्टं, तथा
प्रवेशोऽपि घटत इति ।।२९।। अथ तमेवार्थं दृष्टान्तद्वारेण दृढयति --रयणं रत्नं इह जगति ।
किंनाम । इंदणीलं इन्द्रनीलसंज्ञम् । किंविशिष्टम् । दुद्धज्झसियं दुग्धे निक्षिप्तं जहा यथा
सभासाए स्वकीयप्रभया अभिभूय तिरस्कृत्य । किम् । तं पि दुद्धं तत्पूर्वोक्तं दुग्धमपि वट्टदि वर्तते ।
इति दृष्टान्तो गतः । तह णाणमट्ठेसु तथा ज्ञानमर्थेषु वर्तत इति । तद्यथा ---यथेन्द्रनीलरत्नं
कर्तृ स्वकीयनीलप्रभया करणभूतया दुग्धं नीलं कृत्वा वर्तते, तथा निश्चयरत्नत्रयात्मकपरमसामायिक-
संयमेन यदुत्पन्नं केवलज्ञानं तत् स्वपरपरिच्छित्तिसामर्थ्येन समस्ताज्ञानान्धकारं तिरस्कृत्य
५०प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
यह कहा जाता है कि ‘मेरी आँख बहुतसे पदार्थोंमें जा पहुँचती है ।’ इसीप्रकार यद्यपि
केवलज्ञानप्राप्त आत्मा अपने प्रदेशोंके द्वारा ज्ञेय पदार्थोंको स्पर्श नहीं करता इसलिये वह
निश्चयसे तो ज्ञेयोंमें अप्रविष्ट है तथापि ज्ञायक -दर्शक शक्तिकी किसी परम अद्भुत विचित्रताके
कारण (निश्चयसे दूर रहकर भी) वह समस्त ज्ञेयाकारोंको जानता -देखता है, इसलिये व्यवहारसे
यह कहा जाता है कि ‘आत्मा सर्वद्रव्य -पर्यायोंमें प्रविष्ट हो जाता है ।’ इसप्रकार व्यवहारसे
ज्ञेय पदार्थोंमें आत्माका प्रवेश सिद्ध होता है ।।२९।।
अब, यहाँ इसप्रकार (दृष्टान्तपूर्वक) यह स्पष्ट करते हैं कि ज्ञान पदार्थोंमें प्रवृत्त
होता है : —
अन्वयार्थ : — [यथा ] जैसे [इह ] इस जगतमें [दुग्धाध्युषितं ] दूधमें पड़ा हुआ
[इन्द्रनीलं रत्नं ] इन्द्रनील रत्न [स्वभासा ] अपनी प्रभाके द्वारा [तद् अपि दुग्धं ] उस दूधमें
[अभिभूय ] व्याप्त होकर [वर्तते ] वर्तता है, [तथा ] उसीप्रकार [ज्ञानं ] ज्ञान (अर्थात्
ज्ञातृद्रव्य) [अर्थेषु ] पदार्थोंमें व्याप्त होकर वर्तता है ।।३०।।
टीका : — जैसे दूधमें पड़ा हुआ इन्द्रनील रत्न अपने प्रभासमूहसे दूधमें व्याप्त होकर
ज्यम दूधमां स्थित इन्द्रनीलमणि स्वकीय प्रभा वड़े
दूधने विषे व्यापी रहे, त्यम ज्ञान पण अर्थो विषे.३०.