भिभूय वर्तत इत्युच्यमानं न विप्रतिषिध्यते ।।३०।।
युगपदेव सर्वपदार्थेषु परिच्छित्त्याकारेण वर्तते । अयमत्र भावार्थः ---कारणभूतानां सर्वपदार्थानां कार्यभूताः परिच्छित्त्याकारा उपचारेणार्था भण्यन्ते, तेषु च ज्ञानं वर्तत इति भण्यमानेऽपि व्यवहारेण दोषो नास्तीति ।।३०।। अथ पूर्वसूत्रेण भणितं ज्ञानमर्थेषु वर्तते व्यवहारेणात्र पुनरर्था ज्ञाने वर्तन्त इत्युपदिशति – जइ यदि चेत् ते अट्ठा ण संति ते पदार्थाः स्वकीयपरिच्छित्त्याकारसमर्पणद्वारेणादर्शे बिम्बवन्न सन्ति । क्व । णाणे केवलज्ञाने । णाणं ण होदि सव्वगयं तदा ज्ञानं सर्वगतं न भवति । सव्वगयं वर्तता हुआ दिखाई देता है, उसीप्रकार १संवेदन(ज्ञान) भी आत्मासे अभिन्न होनेसे कर्ता – अंशसे आत्मताको प्राप्त होता हुआ ज्ञानरूप कारण -अंशके द्वारा २कारणभूत पदार्थोंके कार्यभूत समस्त ज्ञेयाकारोंमें व्याप्त होता हुआ वर्तता है, इसलिये कार्यमें कारणका (-ज्ञेयाकारोंमें पदार्थोंका) उपचार करके यह कहनेमें विरोध नहीं आता कि ‘ज्ञान पदार्थोंमें व्याप्त होकर वर्तता है ।’
भावार्थ : — जैसे दूधसे भरे हुए पात्रमें पड़ा हुआ इन्द्रनील रत्न (नीलमणि) सारे दूधको (अपनी प्रभासे नीलवर्ण कर देता है इसलिये व्यवहारसे रत्न और रत्नकी प्रभा सारे दूधमें) व्याप्त कही जाती है, इसीप्रकार ज्ञेयोंसे भरे हुए विश्वमें रहनेवाला आत्मा समस्त ज्ञेयोंको (लोकालोकको) अपनी ज्ञानप्रभाके द्वारा प्रकाशित करता है अर्थात् जानता है इसलिये व्यवहारसे आत्माका ज्ञान और आत्मा सर्वव्यापी कहलाता है । (यद्यपि निश्चयसे वे अपने असंख्य प्रदेशोंमें ही रहते हैं, ज्ञेयोंमें प्रविष्ट नहीं होते) ।।३०।।
अब, ऐसा व्यक्त करते हैं कि इस प्रकार पदार्थ ३ज्ञानमें वर्तते हैं : — १. प्रमाणदृष्टिसे संवेदन अर्थात् ज्ञान कहने पर अनन्त गुणपर्यायोंका पिंड समझमें आता है । उसमें यदि कर्ता,
करण आदि अंश किये जायें तो कर्ता – अंश वह अखंड आत्मद्रव्य है और करण -अंश वह ज्ञानगुण है । २. पदार्थ कारण हैं और उनके ज्ञेयाकार (द्रव्य -गुण -पर्याय) कार्य हैं । ३. इस गाथामें भी ‘ज्ञान’ शब्दसे अनन्त गुण -पर्यायोंका पिंडरूप ज्ञातृद्रव्य समझना चाहिये ।
नव होय अर्थो ज्ञानमां, तो ज्ञान सौ -गत पण नहीं, ने सर्वगत छे ज्ञान तो क्यम ज्ञानस्थित अर्थो नहीं ?.३१.