अथैवं ज्ञानिनोऽर्थैः सहान्योन्यवृत्तिमत्त्वेऽपि परग्रहणमोक्षणपरिणमनाभावेन सर्वं पश्यतोऽध्यवस्यतश्चात्यन्तविविक्तत्वं भावयति —
ज्ञेयाकारोंके निमित्तसे ज्ञानमें ज्ञानकी अवस्थारूप ज्ञेयाकार होते हैं (क्योंकि यदि ऐसा न हो
तो ज्ञान सर्व पदार्थोंको नहीं जान सकेगा) । वहाँ निश्चयसे ज्ञानमें होनेवाले ज्ञेयाकार ज्ञानकी
उनके कारण पदार्थ हैं — इसप्रकार परम्परासे ज्ञानमें होनेवाले ज्ञेयाकारोंके कारण पदार्थ हैं;
करके व्यवहारसे ऐसा कहा जा सकता है कि ‘पदार्थ ज्ञानमें हैं’ ।।३१।।
अब, इसप्रकार (व्यवहारसे) आत्माकी पदार्थोंके साथ एक दूसरेंमें प्रवृत्ति होने पर भी, (निश्चयसे) वह परका ग्रहण -त्याग किये बिना तथा पररूप परिणमित हुए बिना सबको देखता -जानता है इसलिये उसे (पदार्थोंके साथ) अत्यन्त भिन्नता है ऐसा बतलाते हैं : —
अन्वयार्थ : — [केवली भगवान् ] केवली भगवान [परं ] परको [न एव गृह्णाति ] ग्रहण नहीं करते, [न मुंचति ] छोड़ते नहीं, [न परिणमति ] पररूप परिणमित नहीं होते; [सः ] वे [निरवशेषं सर्वं ] निरवशेषरूपसे सबको (सम्पूर्ण आत्माको, सर्व ज्ञेयोंको) [समन्ततः ] सर्व ओरसे (सर्व आत्मप्रदेशोंसे) [पश्यति जानाति ] देखते – जानते हैं ।।३२।।
प्रभु केवली न ग्रहे, न छोडे, पररूपे नव परिणमे; देखे अने जाणे निःशेषे सर्वतः ते सर्वने.३२.