अथैवं ज्ञानिनोऽर्थैः सहान्योन्यवृत्तिमत्त्वेऽपि परग्रहणमोक्षणपरिणमनाभावेन सर्वं
पश्यतोऽध्यवस्यतश्चात्यन्तविविक्तत्वं भावयति —
गेण्हदि णेव ण मुंचदि ण परं परिणमदि केवली भगवं ।
पेच्छदि समंतदो सो जाणदि सव्वं णिरवसेसं ।।३२।।
गृह्णाति नैव न मुञ्चति न परं परिणमति केवली भगवान् ।
पश्यति समन्ततः स जानाति सर्वं निरवशेषम् ।।३२।।
मुंचदि गृह्णाति नैव मुञ्चति नैव ण परं परिणमदि परं परद्रव्यं ज्ञेयपदार्थं नैव परिणमति । स कः
कर्ता । केवली भगवं केवली भगवान् सर्वज्ञः । ततो ज्ञायते परद्रव्येण सह भिन्नत्वमेव । तर्हि किं
प्रभु केवली न ग्रहे, न छोडे, पररूपे नव परिणमे;
देखे अने जाणे निःशेषे सर्वतः ते सर्वने.३२.
कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञानतत्त्व -प्रज्ञापन
५३
ज्ञानदर्पणमें भी सर्व पदार्थोंके समस्त ज्ञेयाकारोंके प्रतिबिम्ब पड़ते हैं अर्थात् पदार्थोंके
ज्ञेयाकारोंके निमित्तसे ज्ञानमें ज्ञानकी अवस्थारूप ज्ञेयाकार होते हैं (क्योंकि यदि ऐसा न हो
तो ज्ञान सर्व पदार्थोंको नहीं जान सकेगा) । वहाँ निश्चयसे ज्ञानमें होनेवाले ज्ञेयाकार ज्ञानकी
ही अवस्थायें है, पदार्थोंके ज्ञेयाकार कहीं ज्ञानमें प्रविष्ट नहीं है । निश्चयसे ऐसा होने पर भी
व्यवहारसे देखा जाये तो, ज्ञानमें होनेवाले ज्ञेयाकारोंके कारण पदार्थोंके ज्ञेयाकार हैं, और
उनके कारण पदार्थ हैं — इसप्रकार परम्परासे ज्ञानमें होनेवाले ज्ञेयाकारोंके कारण पदार्थ हैं;
इसलिये उन (ज्ञानकी अवस्थारूप) ज्ञेयाकारोंको ज्ञानमें देखकर, कार्यमें कारणका उपचार
करके व्यवहारसे ऐसा कहा जा सकता है कि ‘पदार्थ ज्ञानमें हैं’ ।।३१।।
अब, इसप्रकार (व्यवहारसे) आत्माकी पदार्थोंके साथ एक दूसरेंमें प्रवृत्ति होने पर
भी, (निश्चयसे) वह परका ग्रहण -त्याग किये बिना तथा पररूप परिणमित हुए बिना सबको
देखता -जानता है इसलिये उसे (पदार्थोंके साथ) अत्यन्त भिन्नता है ऐसा बतलाते हैं : —
अन्वयार्थ : — [केवली भगवान् ] केवली भगवान [परं ] परको [न एव गृह्णाति ]
ग्रहण नहीं करते, [न मुंचति ] छोड़ते नहीं, [न परिणमति ] पररूप परिणमित नहीं होते; [सः ]
वे [निरवशेषं सर्वं ] निरवशेषरूपसे सबको (सम्पूर्ण आत्माको, सर्व ज्ञेयोंको) [समन्ततः ]
सर्व ओरसे (सर्व आत्मप्रदेशोंसे) [पश्यति जानाति ] देखते – जानते हैं ।।३२।।