अथ केवलज्ञानिश्रुतज्ञानिनोरविशेषदर्शनेन विशेषाकांक्षाक्षोभं क्षपयति —
जो हि सुदेण विजाणदि अप्पाणं जाणगं सहावेण ।
तं सुयकेवलिमिसिणो भणंति लोगप्पदीवयरा ।।३३।।
यो हि श्रुतेन विजानात्यात्मानं ज्ञायकं स्वभावेन ।
तं श्रुतकेवलिनमृषयो भणन्ति लोकप्रदीपकराः ।।३३।।
गाथापञ्चकं गतम् । अथ यथा निरावरणसकलव्यक्तिलक्षणेन केवलज्ञानेनात्मपरिज्ञानं भवति तथा
सावरणैकदेशव्यक्तिलक्षणेन केवलज्ञानोत्पत्तिबीजभूतेन स्वसंवेदनज्ञानरूपभावश्रुतेनाप्यात्मपरिज्ञानं
भवतीति निश्चिनोति । अथवा द्वितीयपातनिका --यथा केवलज्ञानं प्रमाणं भवति तथा केवल-
ज्ञानप्रणीतपदार्थप्रकाशकं श्रुतज्ञानमपि परोक्षप्रमाणं भवतीति पातनिकाद्वयं मनसि धृत्वा सूत्रमिदं
प्रतिपादयति ---जो यः कर्ता हि स्फु टं सुदेण निर्विकारस्वसंवित्तिरूपभावश्रुतपरिणामेन विजाणदि
कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञानतत्त्व -प्रज्ञापन
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ज्ञान होता है इसलिये उनका ज्ञान एक ज्ञेयमेंसे दूसरेमें और दूसरेसे तीसरेमें नहीं बदलता
तथा उन्हें कुछ भी जानना शेष नहीं रहता इसलिये उनका ज्ञान किसी विशेष ज्ञेयाकारको
जाननेके प्रति भी नहीं जाता; इसप्रकार भी वे परसे सर्वथा भिन्न हैं । [यदि जाननक्रिया
बदलती हो तभी उसे विकल्प (पर -निमित्तक रागद्वेष) हो सकते हैं और तभी इतना
परद्रव्यके साथका सम्बन्ध कहलाता है । किन्तु केवलीभगवानकी ज्ञप्तिका परिवर्तन नहीं होता
इसलिये वे परसे अत्यन्त भिन्न हैं । ] इसप्रकार केवलज्ञानप्राप्त आत्मा परसे अत्यन्त भिन्न
होनेसे और प्रत्येक आत्मा स्वभावसे केवलीभगवान जैसा ही होनेसे यह सिद्ध हुआ कि
निश्चयसे प्रत्येक आत्मा परसे भिन्न है ।।३२।।
अब केवलज्ञानीको और श्रुतज्ञानीको अविशेषरूपसे दिखाकर विशेष आकांक्षाके
क्षोभका क्षय करते हैं (अर्थात् केवलज्ञानीमें और श्रुतज्ञानीमें अन्तर नहीं है ऐसा बतलाकर
विशेष जाननेकी इच्छाके क्षोभको नष्ट करते हैं ) : —
अन्वयार्थ : — [यः हि ] जो वास्तवमें [श्रुतेन ] श्रुतज्ञानके द्वारा [स्वभावेन ज्ञायकं ]
स्वभावसे ज्ञायक (अर्थात् ज्ञायाकस्वभाव) [आत्मानं ] आत्माको [विजानाति ] जानता है
[तं ] उसे [लोकप्रदीपकराः ] लोकके प्रकाशक [ऋषयः ] ऋषीश्वरगण [श्रुतकेवलिनं
भणन्ति ] श्रुतकेवली कहते हैं ।।३३।।
श्रुतज्ञानथी जाणे खरे ज्ञायकस्वभावी आत्मने,
ऋषिओ प्रकाशक लोकना श्रुतकेवली तेने कहे. ३३.