अथ ज्ञानस्य श्रुतोपाधिभेदमुदस्यति —
सुत्तं जिणोवदिट्ठं पोग्गलदव्वप्पगेहिं वयणेहिं ।
तं जाणणा हि णाणं सुत्तस्स य जाणणा भणिया ।।३४।।
सूत्रं जिनोपदिष्टं पुद्गलद्रव्यात्मकैर्वचनैः ।
तज्ज्ञप्तिर्हि ज्ञानं सूत्रस्य च ज्ञप्तिर्भणिता ।।३४।।
पूर्वोक्तलक्षणस्यात्मनो भावश्रुतज्ञानेन स्वसंवेदनान्निश्चयश्रुतकेवली भवतीति । किंच --यथा कोऽपि
देवदत्त आदित्योदयेन दिवसे पश्यति, रात्रौ किमपि प्रदीपेनेति । तथादित्योदयस्थानीयेन केवलज्ञानेन
दिवसस्थानीयमोक्षपर्याये भगवानात्मानं पश्यति, संसारी विवेकिजनः पुनर्निशास्थानीयसंसारपर्याये
कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञानतत्त्व -प्रज्ञापन
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भावार्थ : — भगवान समस्त पदार्थोंको जानते हैं, मात्र इसलिये ही वे ‘केवली’ नहीं
कहलाते, किन्तु केवल अर्थात् शुद्ध आत्माको जानने -अनुभव करनेसे ‘केवली’ कहलाते हैं ।
केवल (-शुद्ध) आत्माके जानने -अनुभव करनेवाला श्रुतज्ञानी भी ‘श्रुतकेवली’ कहलाता है ।
केवली और श्रुतकेवलीमें इतना मात्र अन्तर है कि — जिसमें चैतन्यके समस्त विशेष एक ही साथ
परिणमित होते हैं ऐसे केवलज्ञानके द्वारा केवली केवल आत्माका अनुभव करते हैं जिसमें
चैतन्यके कुछ विशेष क्रमशः परिणमित होते हैं ऐसे श्रुतज्ञानके द्वारा श्रुतकेवली केवल आत्माका
अनुभव करते हैं; अर्थात्, केवली सूर्यके समान केवलज्ञानके द्वारा आत्माको देखते और अनुभव
करते हैं तथा श्रुतकेवली दीपकके समान श्रुतज्ञानके द्वारा आत्माको देखते और अनुभव करते
हैं, इसप्रकार केवली और श्रुतकेवलीमें स्वरूपस्थिरताकी तरतमतारूप भेद ही मुख्य है, कम-
बढ़ (पदार्थ) जाननेरूप भेद अत्यन्त गौण है । इसलिये अधिक जाननेकी इच्छाका क्षोभ छोड़कर
स्वरूपमें ही निश्चल रहना योग्य है । यही केवलज्ञान -प्राप्तिका उपाय है ।।३३।।
अब, ज्ञानके श्रुत -उपाधिकृत भेदको दूर करते हैं (अर्थात् ऐसा बतलाते हैं कि श्रुतज्ञान
भी ज्ञान ही है, श्रुतरूप उपाधिके कारण ज्ञानमें कोई भेद नहीं होता) : —
अन्वयार्थ : — [सूत्रं ] सूत्र अर्थात् [पुद्गलद्रव्यात्मकैः वचनैः ] पुद्गलद्रव्यात्मक
वचनोंके द्वारा [जिनोपदिष्टं ] जिनेन्द्र भगवानके द्वारा उपदिष्ट वह [तज्ज्ञप्तिः ही ] उसकी ज्ञप्ति
[ज्ञानं ] ज्ञान है [च ] और उसे [सूत्रस्य ज्ञप्तिः ] सूत्रकी ज्ञप्ति (श्रुतज्ञान) [भणिता ] कहा
गया है ।।३४।।
पुद्गलस्वरूप वचनोथी जिन -उपदिष्ट जे ते सूत्र छे;
छे ज्ञप्ति तेनी ज्ञान, तेने सूत्रनी ज्ञप्ति कहे. ३४.