Pravachansar Pravachano-Gujarati (Devanagari transliteration). Date: 28-06-1979; Gatha: 108.

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गाथा – १०७ प्रवचनसार प्रवचनो ४०४
पण द्रव्यपणे छे, गुणपणे छे, पर्यायपणे छे. एनो सत्तागुण के जे द्रव्यपणे नथी, गुणपणे नथी,
पर्यायपणे नथी. आहा... हा! ते गुण, गुणपणे छे (सत्तागुण) पण अनेरागुणपणे नथी. पर्यायपणे
नथी. एकगुण गुणपणे नथी ई कई अपेक्षाए के बीजा गुणपणे नथी. एम द्रव्य, द्रव्य तरीके नथी ते
बीजा द्रव्य तरीके नथी. एम एक पर्याय बीजी पर्यायपणे नथी. आहा.. हा!
“–एम त्रण प्रकारे
विस्तारकथनमां वर्णववामां आवे छे. ए ज प्रमाणे सर्व द्रव्यो विषे समजवुं.” आहा... हा!
विशेष आवशे........
प्रवचनः ता. २८–६–७९.
‘प्रवचनसार’ १०७ गाथा. भावार्थ. (गई काले चाल्यो’ तो आजे फरीने.)
भावार्थः– “एक आत्माने” जरी अटपटी (वात छे.) परथी तो जुदुं बताव्युं छे. एक द्रव्यने
बीजा द्रव्य हारे कांई नहीं. एक द्रव्य, बीजा द्रव्यने अडे नहीं, ने एक द्रव्य, बीजा द्रव्यनी पर्यायने करे
नहीं. एटले परनी हारे तो कांई संबंध छे नहीं. हवे पोतामां-एमां त्रण प्रकार पडे छे. आत्माने
‘एक आत्माने’
“विस्तार कथनमां ‘आत्मद्रव्य’ तरीके, आत्मा वस्तु छे वस्तु! द्रव्य तरीके
‘ज्ञानादिगुण’ तरीके.” कारण द्रव्य ते गुण नथी. (ए बे वच्चे) अतद्भाव छे ने....! तेथी
‘ज्ञानादिगुण तरीके’ “अने ‘सिद्धत्वादिपर्याय’ तरीके,” आंही सिद्धनी पर्यायनी वात लीधी एम
सम्यग्दर्शनपर्याय, चारित्रनी पर्याय लेवी.
“–एम त्रण प्रकारे वर्णववामां आवे छे.” ए ज सर्व द्रव्यो
विशे समजवुं.” जेम एक द्रव्यमां त्रण प्रकार वर्णव्या, -द्रव्य, गुण ने पर्याय भिन्न भिन्न! आ
अतद्भाव (छे.) ‘ते -भाव, ते नहीं, द्रव्यभाव ते गुणभाव नहीं, गुणभाव ते (द्रव्य के) पर्याय
भाव नहीं. आहा... हा! एक ज वस्तुनी अंदर (छे.) परनी साथेनी अहींयां वातनहीं. ए रीते एक
गुणने विस्तारी शकाय. एम ‘सर्व द्रव्यो विशे समजवुं.’
(कहे छे) जेम परमाणु! तो परमाणु तरीके जे छे परमाणु- द्रव्य तरीके परमाणु एना वर्ण,
रस, स्पर्श, गंध ते गुण, अने एनी भीनी, ऊनी, काळी आदि पर्याय, ए रीते एक परमाणुमां पण
अभिन्न होवा छतां- (ए गुणपर्याय) प्रदेशे अभिन्न होवा छतां, आ रीते विस्तार समजी शकायछे.
आवुं स्वरूप छे लो! परनी हारे कांई नहीं हवे रह्युं ज नहीं, हवे (तो) एकमां -एकमां अंदर. चाहे
तो परमाणु होय के चाहे आत्मा! चार द्रव्य तो छे ज ए तो आहा..! चार द्रव्यमां ई छे.

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गाथा – १०७ प्रवचनसार प्रवचनो ४०प
धर्मास्तिकाय के बीजानी पर्याय (करे) हलाववानी एम नथी. एम अधर्मास्तिकाय बीजाने स्थिर
करावे एम नथी. तेम काळ बीजाने बदलावे एम नथी. आहा... हा! ‘नियमसार’ मां आवे छे. काळ
न होय तो परिणमन न होय बीजामां लो! एवुं आवे. आहा...! ए तो काळद्रव्यनी सिद्धि करवा
(कथन) छे. ‘काळद्रव्य न होय, तो परमां परिणमन थाय नहीं’ एम पाठ छे. ए तो फक्त
काळद्रव्यने सिद्ध करवा कह्युं छे. एक द्रव्यनी पर्याय बीजा द्रव्यनी पर्यायने करे, ए त्रणकाळमां बनतुं
नथी. आहा... हा... हा! झीणुं बहु!
(कहे छे केः) (श्रोताः) मोटा माणसो तो घणाना कार्य करी द्ये छे...! (उत्तरः) हें आ
रामजीभाईए घणाने जीताव्या’ ता... वकील थईने! (श्रोता पोते) पाप कर्युं तुं शांतिभाईए घणा
रूपिया भेगा कर्या छे. हुकम केवा? नानो ने ई बे ए! कोण करे भाई! जे एक द्रव्य छे ई बीजा
द्रव्यने, क्षेत्रथी फेरवी शके, काळथी फेरवी शके, काळथी फेरवी शके- ई कांई बनी शके नहीं. आहा...
हा... हा! एनी वात तो एक बाजु रही गई केः आत्मा, शरीरने अडतो नथी. माटे आत्मा शरीरनी
पर्याय करतो नथी. गजब वात छे!! आ हाथ हाले ने आ आंगळी हाले! रोटली तूटे तो कहे छे के
रोटली तूटे छे एने हाथ अडतो नथी. तूटे छे ई एनी पर्याय छे, रोटलीनी. हाथ (एने) अडतो
नथी. हाथ आत्माने अडतो नथी. आत्मा हाथने अडतो नथी. एवुं परथी तो आ रीते ज भिन्न छे.
बधा द्रव्योमां! अनंत द्रव्योमां!! आहा... हा! ज्यां सिद्धभगवान बिराजे छे त्यां अनंता निगोदना
जीव छे. (ओहो) ज्यां सिद्ध भगवान बिराजे छे त्यां. छतां एक द्रव्यने, बीजा द्रव्यने-कोई (कोई)
अडतुं नथी. आहा... हा! एम निगोदना जीव अनंता, एक अंगूलना असंख्यभागमां (छे.) बधे
ठेकाणा भर्यां छे आंही- आखा लोकमां. पण एक निगोदनो जीव, बीजा निगोदना जीवने अडतो
नथी, ने एक-एक जीवने- बे-बे शरीर छे. तैजस ने कार्माण. (ए) तैजस- कार्माण शरीर (छे)
पण एने आत्मा अडतो नथी. तैजस (शरीरमां) अनंत परमाणुं छे. तेमां एक परमाणुं, बीजा
परमाणुं ने अडतो नथी. ए तो जाणे मुख्य-मुख्य वस्तु छे. आहा... हा... हा!
हवे अहींया तो एक वस्तुमां अतद्भाव केम छे ए सिद्ध करे छे. एक तत्त्व अने बीजा तत्त्व
वच्चे अन्यत्वभाव छे. एनी हारे कांई संबंध नहीं. पण एक द्रव्यनी वच्चे-प्रदेश ई ना ई होवा
छतां -तेमां ए भाव आ नहीं, द्रव्य भाव ते गुण (भाव) नहीं, ने पर्याय नहीं, (एवो)
अतद्भाव सिद्ध करे छे. आहा... हा... हा... हा! छे ने? (पाठमां)
(अहींयां कहे छे केः) “एक आत्माने विस्तारकथनमां ‘आत्मद्रव्य’ तरीके, ‘ज्ञानादिगुण’
तरीके सत्तानो- आज तो बोल आव्यो’ तो सवारमां. सत्ता य गुण छे एम ज्ञानादिगुण (तरीके),
“अने ‘सिद्धत्वादिपर्याय’ तरीके– एम निश्चये, एक आत्मद्रव्य छे ई

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गाथा – १०७ प्रवचनसार प्रवचनो ४०६
द्रव्य तरीके, एमां पेटा जे ज्ञानादिगुण तरीके, अने एनी मिथ्यादशा छे ई पर्याय तरीके, (एम)
परथी भिन्न छे पण द्रव्य छे ई पर्याय नथी ने पर्याय छे ई द्रव्य नथी (एवो अतद्भाव छे.)
आहा... हा... हा! मिथ्यात्व जे छे ई पर्यायमां, ए दर्शनमोहने लईने नथी. पण ते पर्याय छे, ते
द्रव्य नथी ने द्रव्य छेते पर्याय नथी. आहा... हा... हा... हा! - “एम एक आत्मामां “त्रण प्रकारे”
धर्मनी पर्यायनो विचार करे, तो आत्मा ‘द्रव्य’ तरीके छे, ज्ञानादि त्रिकाळ ‘गुण’ तरीके छे, अने
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रनी पर्याय ‘पर्याय’ तरीके छे. ए पर्याय गुणरूपे नथी, गुण द्रव्यरूपे नथी, द्रव्य
पर्यायरूपे नथी. आहा.. हा! आवुं झीणुं छे!
(कहे छे) वळी एक आत्माना हयातीगुणने, अहींयां सत्ता लीधी. सत्ता, अस्तित्वगुण छे
ने...? प्रदेशे तो अभेद छे. एक आत्माना सत्तागुणने, सत्ता ते द्रव्य, सत्ताज्ञानादिगुण, ने
सत्तासिद्धत्वपर्याय, एम “त्रण प्रकारे विस्तारवामां (वर्णववामां) आवे छे. एम नीचे एक
आत्माने सत्ताद्रव्य तरीके, सत्तागुण तरीके, छे ने...? बीजा हयाती (आदि) ज्ञानादिगुण तरीके हों!
एक गुण तो छे (सत्ता) ई ज्ञानादिगुणो छे पण एमां एकबीजानो अभाव छे एमां. अने ई
सत्ताने सम्यग्दर्शननी पर्याय थई, ई (सत्ता) पर्याय तरीके एने वर्णववामां आवे (छे.) सत्ता गुण
ने ज्ञाननी पर्याय थई, दर्शननी पर्याय थई ए हयाती साथे छे. ए पर्याय छे (ई) पर्यायमां
अस्तित्व छे. ते अस्तित्व गुणमां ते अस्तित्व नथी, गुणनुं अस्तित्व छे ई द्रव्यमां अस्तित्व नथी.
द्रव्यनी सत्ता छे. गुणनी सत्ता नथी. गुणनी सत्ता छे ई पर्यायनी सत्तामां नथी. (त्रणेयनी सत्ता
जुदी जुदी छे.) आवुं! अहा.. हा! झीणुं बहु!! मारग झीणो बहु!!
(कहे छे केः) वळी, एक आत्मानो, जे सत्तागुण छे-हयाती ते सत्तागुण. ते आत्मद्रव्य नथी.
ई एक ज जे सत्तागुण छे ई आत्मद्रव्य नथी, आत्मा तो अनंतगुण (नो पिंड) छे. हयातीगुण -
सत्तागुण सिवायनो ते, ज्ञानादिगुण नथी. सत्तागुण तरीके सत्ता छे. पण सत्तागुणपणे द्रव्य, ते
सत्तागुण नथी. सत्तागुण ज्ञान-दर्शनादि गुण नथी. सत्ता, सत्ताथी छे. ज्ञानादि अनंतगुण छे ई रीते
सत्ता नथी. आहा. हा! आवो विषय! गाथा (बधी) तत्त्वनो विषय छे आ तो! एकदम भिन्न भिन्न
वस्तु बतावे छे. परथी तो भिन्न पण एकमां य भि न्नद्रव्य, गुण, पर्याय, (त्रणे भिन्न भिन्न स्वरूपे
छे.) आहा... हा!
(कहे छेः) एकमां पण ज्यारे सत्ता ने द्रव्य, सत्ताथी बीजा गुण आदि ते गुण अने पर्याय,
एकबीजामां अभाव छे. अतद्भाव छे. तो परनी साथेनी शुं वात करवी? आहा...! ‘गमे ते
संयोगमां ने गमे ते क्षेत्रमां ने गमे ते काळमां होय– पण प्रत्येक द्रव्य पोताना द्रव्य–गुण–पर्यायमां
छे.’
नारकीमां जीव छे एम कहेवुं ई व्यवहार छे. देवमां जीव छे एम

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गाथा – १०७ प्रवचनसार प्रवचनो ४०७
कहेवुं व्यवहार छे. देवना क्षेत्रमां, नारकीना क्षेत्रमां जीव छे एम कहेवुं ई व्यवहार छे. आहा... हा!
श्रेणिक राजा! नरकमां छे ई कहेवुं व्यवहार छे, पण एनी गतिनी ‘योग्यता ज’ नारकीनी छे. ई
पर्यायमां ए छे. पण ई गुणमां नथी ने ई द्रव्यमां नथी. जे पर्यायमां छे ते गुणमां नथी ने ते
द्रव्यमां नथी. आहा... हा... हा! आवुं छे! कां’ (शास्त्रमां) एक कहे छे ने...! के श्रेणिकराजा, नरके
गया ते समकिती छे- क्षायिक समकिती (छे.) तीर्थंकरगोत्र बांध्युं छे. हवे ई तो एने पूर्वनुं आयुष
बंधाई गयुं, एने लईने नरकमां गया! अहींयां ना पाडे छे. अहा... हा! आयुष्यकर्मनी पर्यायमां
आयुष्यपर्याय हती, आंही जवानी पर्याय त्यां हती ते पोतानी पर्यायथी त्यां (जवानी) गति करे छे.
आयुष्यकर्म तो निमित्तमात्र छे. ए निमित्तथी कांई आमां थतुं नथी. आहा... हा... हा! शास्त्रमां
एवो लेख आवे. आनूपूर्व्य नामनी एक प्रकृति छे. नामकर्मनी. जेम बळदने नाथ नाखे. ने खेंचे एम
आनुपूर्वी प्रकृति नरकमां लई जवा (जीवने) खेंचे छे. देवमां लई जवा, मनुष्यमां लई जवा,
तिर्यंचमां लई जवा गति (करावे छे) आनुपूर्व्य अहींयां कहे छे केः (ए गति थई त्यारे) हती चीज
आनुपूर्व्य ए बताव्युं छे. बाकी तो ते समये जे पर्याय छे गति करवानी एकता, एने लईने ई गति
करे छे. आनुपूर्व्य (प्रकृति) ने लईने नहीं. आहा... हा... हा!
घणुं भेद–ज्ञान!! परथी तो भेद–
ज्ञान! पण पोताना परिणमनमां (स्वरूपमां) जुदा, जुदा अतद्भाव!! आहा... हा.. हा.. हा!
(केटलाके तो) सांभळ्‌युं न होय, (अने माने के) वाडामां जन्म्या जैन छीए. जैन परमेश्वर शुं कहे छे
तत्त्वने ई खबर न मळे! आहा.. हा! नवराश नहीं ने पण नवराश, धंधा! धंधो करवो, बायडी-
छोकरां साचववां! वेपार साचववो! के नो’ साचवे तो ओलुं थई जाय!
(श्रोताः) पण दुकाने न
जायतो, दुकानो बधी बंध थई जाय...! (उत्तरः) कोण करे वेपार? ए तो जडनी पर्यायना समये ते
थशे. ए परमाणुमां पर्याय, जे रीते गति थवानी, ते थशे ज. ए पर्याय (जे थाय छे ई) बीजो जोडे
आ छे, एनाथी पर्याय ई पर्याय थाय छे, एम तो छे ज नहीं. पण एनी जे पर्याय थाय छे जे
पैसा लेवानी-देवानी आदि, (ते) पर्याय ते द्रव्य नथी ने पर्याय ते गुण नथी. आहा... हा!
(पंडितजी!) आवी वातुं छे!! (तत्त्वनो) सूक्ष्मपणे विचार करवो जोईए भाई! आ तो, प्रभुनो
मारग छे! सर्वज्ञपरमेश्वर! त्रिलोकनाथ! एणे ज्ञानमां जोयुं एवुं कह्युं छे. आहा...! छे ई? (पाठमां)
त्रीजो पेरेग्राफ!
(अहींयां कहे छे केः) “वळी एक आत्माना हयातीगुणने ‘हयात आत्मद्रव्य”
हयातज्ञानादिगुण’ अने ‘हयात सिद्धत्वादिपर्याय’ एम त्रण प्रकारे विस्तारवामां आवे छे. ए ज
प्रमाणे सर्व द्रव्यो विषे समजवुं.”
(अहींया कहे छे केः) “वळी एक आत्मानो जे हयातीगुण छे.” एक आत्मा नो सत्तागुण
जे छे, “ते आत्मद्रव्य नथी.” ई एक ज गुण आत्मद्रव्य नथी. “(हयातीगुण

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गाथा – १०७ प्रवचनसार प्रवचनो ४०८
सिवायनो) ज्ञानादिगुण नथी.” सत्ता, सत्तागुण छे, पण सत्ता सिवायना जे ज्ञान, आनंद ए गुण
(पणे) सत्तागुण नथी. सत्तागुणथी ज्ञान आदि बधा गुण, जुदा छे. आहा... हा... हा! प्रवचनसार
वांच्युं छे कोई फेरे? नवराश क्यांथी, नवराश? वांचो तो्र ए समजायने! आहा... हा! (श्रोताः)
आपनी हाजरी वगर बराबर समजाय नहीं...
(उत्तरः) हाजरी तो पोतानी छे, एमां समजाय छे.
आहा... हा! (श्रोताः) तो य निशाळे तो बेसवुं पडे छे ने... जावुं पडे छे ने...! (उत्तरः) निशाळे
जाय छे कोण? जीवद्रव्यनी पर्याय एवी (थवानी) होय तो जाय. शरीरनी पर्यायनी योग्यता होय, तो
शरीर पर्याय जाय. आहा... हा... हा... हा! ए मास्तर पासे जावुं माटे एने लईने (एटले) शरीरने
लईने गयो छे अने शरीर आत्माने लईने न्यां गयुं छे एम नथी. आहा... हा... हा... हा! अमे
(भणता’ ता) त्यारे धूळी (निशाळ) हती.
(श्रोताः) निशाळनो दाखलो एटला माटे आप्यो के
आपना पासे आववुं पडे ने...! (उत्तरः) आववुं पडे ने...! अहाहाहाहा! निमित्तथी तो कहेवाय
एम ने? अमारे मास्तर हतो धूळी निशाळनो, छ वरसनी उंमर हती. पहेली धूळी, पछी पहेली
चोपडीमां जता. पहेली धूळी निशाळे, धूळमां एकडो करावे पहेलो! एने (मास्तरने) पैसा न
आपता, पण कंई सारुं वरस एवुं होय त्यारे के दा’ डो होय तो, लगन होय तो बाप आपे पीरसणुं
एटले एने हाले (गुजरान) छोकरां घणां होय ने एटले हाले (गुजारो) ई शीखवतो, एक मास्तर
हतो जडभरत! हतो साधारण भणेलो ई ‘एकडे एक’ धूळमां शीखडावतो! अहा... हा... हा... हा!
अहींया तो कहे छे केः आंगळीने लईने धूळमां आम एकडो अंदर थयो नथी. धूळने आंगळी
अडी नथी. आवी वात प्रभु! आ शुं? आ सत्-सत् रीते छे तेने सत् रीते जाणवुं! जे रीते सत् छे
ते रीते सत्ने सत्पणे जाणवुं! सत्ने गोटा वाळशे, असत्पणे रखडवुं पडशे, मरी जशे!! चोराशीना
अवतारमां आहा... हा! अहींयां खम्मा! खम्मा! थातुं होय, पांच-पचीस करोड रूपिया होय, आहा...
ई मरीने भाई भूंडने कूखे जाय. मांस आदि न खाय दारू (न) पीए. भूंडने कूखे जाय ने विष्टा
खाय. आहा...! बापु, एवुं अनंतवार थई गयुं छे! आहा... हा! विवेक, विचार कर्यो नथी एणे.
दीर्धसूत्री थतो नथी. वर्तमानमां एकलो रोकाई गयो बस! परद्रव्यथी भिन्न (हुं) एनो निर्णय कर्यो
नथी. अने आम तो, द्रव्य ते गुण नहीं ने गुण ते पर्याय नहीं, एनो निर्णय कर्यो नथी. आहा.. हा!
(अहींया कहे छे केः) “वळी एक आत्मानो जे हयातीगुण छे ते आत्मद्रव्य नथी,
(हयातीगुण सिवायनो) ज्ञानादिगुण नथी.” ज्ञानादिगुण पण हयाती (गुण) नथी. सत्तागुण छे
ई ज्ञानगुण नथी, सत्तागुण छे ई दर्शनगुण नथी, आहा...! अने सत्तागुण छे ई सम्यग्दर्शननी
पर्याय आदि नथी.
“के सिद्धत्वादिपर्याय नथी.” आ सिद्धत्वनी पर्याय लीधी छे एमां, (जे)
सत्तागुण छे ई सम्यग्दर्शन के सम्यक्चारित्रनी पर्याय नथी. आहा... हा.. हा! ज्ञानगुणनी पर्याय जे
छे, ए सत्तागुणनी पर्याय नथी ने सत्तागुणनी पर्याय ई ज्ञानगुणनी पर्याय नथी. अहा..! एक

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गाथा – १०७ प्रवचनसार प्रवचनो ४०९
साथे सम्यग्दर्शन ने ज्ञान उत्पन्न थाय, अरे! अनंता गुणनी एकसाथे अंशवत् पर्याय प्रगट थाय.
‘सर्वगुणांश ते समकित’ ए अनंतगुणनो पिंड! एनो ज्यां द्रष्टिने अनुभव थयो, (आत्माना)
जेटला गुणोनी संख्या एनो एकअंश व्यक्तपणे बधु प्रगट! पूरण! पण ते एकपर्याय,
बीजीपर्यायपणे नथी. आहा.. हा! आहा...! हा! (श्रोताः) छतां सत्ता, द्रव्य-गुण-पर्याय-त्रणेयमां
व्यापेली छे...! (उत्तरः) व्यापी छे सत्ता सत्तामां! द्रव्य सत्, गुण सत्, पर्याय सत् ई तो आवी गयुं
ने... (टीकामां) ई तो गाथा चाले छे आ
सद्व्वं सच्च गुणो सच्चेव पज्जओ [वित्थारो] सत्द्रव्य
ते गुण नहीं ने गुण ते सत्द्रव्य नही ने सत्द्रव्य ते सत्पर्याय नहीं. आहा.. हा! झीणी वात छे
भाई! ई तो अधिकार जे आवे ई (स्पष्टीकरण थाय.) आहा... हा..!
(अहींयां कहे छे केः) “हयातीगुण सिवायनो) ज्ञानादिगुण नथी के सिद्धत्वादिपर्याय
नथी.” आहा...! सत्ता नामनो गुण छे. अने अहींया समकितपर्याय थई, तो ई सत्तागुणनी
पर्यायथी ई समकितनी पर्याय नथी (थई.) समकितनी पर्याय, समकितनी पर्यायने लईने छे.
सत्तागुणने लईने नथी. बीजी रीते कहीए तो, श्रद्धागुण जे छे त्रिकाळ, आत्मा जे त्रिकाळ छे एम
श्रद्धागुण त्रिकाळ छे. तो श्रद्धागुण छे ई आतम-द्रव्यनो श्रद्धागुण, आत्मद्रव्य ए श्रद्धागुणरूपे नथी ई
आत्मद्रव्य, अने गुण तो त्रिकाळ छे. अने एनी पर्याय छे ई श्रद्धानी पर्याय तरीके छे. ए बीजा
गुणने लईने पर्याय छे एम नहीं. ए पर्याय थई ई समकितदर्शननी पर्याय छे ए बीजा गुणथी थई
एम नथी. गुणने कोई गुण सहाय नथी. बीजा द्रव्यने तो बीजा द्रव्यनी सहाय नथी (ज), एक द्रव्य
बीजा द्रव्यने तो सहाय नथी, पण आत्मामां ने परमाणुमां जे अनंतगुण रह्या छे, तो ई एकगुण
बीजागुणने सहाय नथी. आहा... हा... हा! एनुं अस्तित्व, सत्ता छे भिन्न-भिन्न! आहा... हा!
(कहे छे केः) समकितनी पर्याय प्रगट थई. माटे सम्यग्ज्ञाननी पर्याय प्रगट थई, माटे अनंत
आनंदनो स्वाद आव्यो, ए पर्याय सम्यग्दर्शन पर्यायपणे (प्रगट थई) माटे आव्यो एम नथी. ते
(ते) पर्याय जुदी छे (ते ते) गुण जुदो छे ने गुणमां द्रव्य जुदुं छे! आहा... हा! आवुं लांबुं!
आचार्योए काम कर्या छे ने!! आहा... हा... हा! जंगलमां रहीने, मुनि! मुनिओ, तो नग्न ज हता,
दिगम्बर ज हता. श्वेतांबर तो नीकळ्‌या, हमणां बे हजार वरस, पछी एमांथी नीकळ्‌या. जैनदर्शनमां
तो एकला नग्न मुनि ज होय अनादिथी. अनादिथी अनंतकाळ! (मुनि नग्न न होवाना)
वस्त्रसहित ते मुनिपणुं नथी.’
(श्रोताः) एना शास्त्रमां लख्युं छे के अमारामांथी दिगंबर नीकळ्‌या
छे..! (उत्तरः) ई गमे ई कहे ने! माणसो गमे ई कहे! अनादि सनातन सत्य आ छे. एमांथी
श्वेतांबर बे हजार वरस पहेलां नीकळ्‌यां छे. अने पोतानी द्रष्टिए शास्त्र बनाव्यां, एमां आ बधा
गोटा वाळ्‌या छे. आहा... हा! न्यां तो लूगडांना पोटलानां पोटला राख्यां छे. अने अहींयां तो कहे के
एक लूगडांनो कटको (पासे) राखे ने मुनिपणुं माने तो निगोदमां जशे. एने साधु माने तो ई
निगोदमां जशे.

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गाथा – १०७ प्रवचनसार प्रवचनो ४१०
आहा... हा! वस्त्रसहित साधुंपणुं मानशे ए निगोदमां जवाना छे, अने जे एने माननारा छे ‘के
आ साधु छे’ ए पण निगोदमां जामी जवाना छे.
आहा... हा! गजब काम बापु! आकरुं काम
बहु!! वस्तुंनुं स्वरूप एम छे. आ तो अनादि भगवान त्रणलोकना नाथ! सर्वज्ञदेवे जोयुं-जाण्युं,
एम कह्युं छे. ओलुं तो कल्पित बधुं बनाव्युं छे. श्वेतांबर लोकोए शास्त्र कल्पित बनाव्यां छे बधां!
एनी श्रद्धाने माने ते गृहीतमिथ्याद्रष्टि छे. आहा... हा! आवुं आकरुं काम पडे!! आहा... हा!
(वळी कहे छे केः) सौने सारुं लगाडीने भेगां करवा छे? माणस भेगां थाय जाजां! के भई!
आहा... हा! सत्ने संख्यानी जरूर नथी. सत् तो सत्स्वरूपे छे त्रिकाळ!
अहींयां (तो कहे छे) ए परनी हारे कांई संबंध नथी. आहा... हा.. हा! वस्त्रनो टुकडो राखे
ने आंही चारित्र होय अंदर. एम नहीं कहे ई तो जाणे भिन्न पडी गयुं. पण चारित्रगुणनी पर्याय
छे, ए चारित्रगुण छे ई चारित्रगुणनी पर्याय छे एम नथी. ए चारित्रगुण छे ने चारित्रनुं द्रव्य छे
(ए चारित्रनी पर्याय छे) ए बधुं भिन्न छे. (द्रव्य-गुण ने पर्याय) द्रव्यरूपे चारित्र, गुणरूपे
चारित्र, पर्यायरूपे चारित्र, - (ए त्रणेय भिन्न छे.) आवी वात छे! आहा... हा... हा!
(मुनिराजने) एनी दशामां विकल्प होय, पंचमहाव्रतना, पण एने ई (मुनिराज) बंधनुं कारण
माने. अने नग्नदशा होय ई निमित्त तरीके नग्नदशा. ई में करी नथी ने माराथी नग्नदशा थई
नथी. आहा... हा... हा! कारण के एक द्रव्य बीजा द्रव्यने (कांई करी शके नहीं) ए लूगडुं छोडी शके.
लंगोटी छोडी शके, एम एक द्रव्य बीजा द्रव्यनुं कांई करी शके नहीं आहा... हा! आवी वात छे.
अहींयां तो (कहे छे) एक द्रव्यमां पण गुण ते द्रव्य नहीं ने द्रव्य ते गुण नहीं के पर्याय नहीं.
एवो त्रण वच्चे भिन्न भाव (छे) के आ भाव ते आ भाव नहीं ने आ भाव ते आ भाव नहीं.
आहा.. हां! गजब वातुं!! परमात्मा सिवाय, जिनेश्वरदेव त्रिलोकनाथ! केवळीए कहेली वात, संतो
कहे छे. एवी वात, क्यां’ य बीजे छे नहीं. आहा...! आकरुं लागे पण शुं थाय? भाई! बीजाने
दुःख लागे. अमे आ बधुं करीए त्यारे खोटुं? भक्ति करीए, पूजा करीए, सामायिक करीए,
पडिक्कमणा (करीए) - बधुं मिथ्यात्वसहित छे. आहा... हा! दिगंबरमां रहीने पण जे सामायिक
होय, विकल्प ऊठे एने सामायिक माने ‘अमे सामायिक करीने बेठा छीए’ मिथ्यात्व छे भाई!
आहा... हा! आहा...!
(कहे छे केः) एवी रीते एक आत्मानो हयातीगुण छे ई आत्माद्रव्य नथी. हयातीगुण
सिवायनो ए गुण (आत्मद्रव्य) नथी. अने सिद्धत्वादिपर्याय (ते आत्मद्रव्य) नथी. आहा... हा!

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गाथा – १०७ प्रवचनसार प्रवचनो ४११
आपणे तो अहींयां सम्यग्दर्शन ने सम्यक्चारित्र उपर ऊतारवुं वधारे. गोटां एमां छे ने..!
सम्यग्दर्शननी पर्याय, स्वद्रव्यना लक्षे, कर्त्ताना स्वतंत्रपणे, षट्कारकना परिणमनथी सम्यग्दर्शन थाय,
(अर्थात्) षट्कारकना परिणमनथी सम्यग्दर्शन थाय. एनुं लक्ष भले द्रव्य उपर छे. पण छे
स्वतंत्रपणे षट्कारकनुं परिणमन! ई सम्यग्दर्शननी पर्याय (जे छे ते) सम्यक्त्व श्रद्धागुण जे त्रिकाळ
छे ते-रूपे नथी. त्रिकाळ जे श्रद्धागुण छे, एनी आ पर्याय छे ने...? पण छतां ए पर्याय,
श्रद्धागुणपणे नथी. पर्याय, पर्यायपणे छे, गुण गुणपणे छे, द्रव्य द्रव्यपणे छे. आहा...! आवुं छे.
आहा...! आवुं सांभळवा य लोको नवरा क्यां छे? जिंदगी चाली जाय छे आम बफममां ने
बफममां! घणा वखतमां!
(अहींयां कहे छे केः) “अने जे आत्मद्रव्य छे, (हयाती सिवायनो) ज्ञानादिगुण छे के
सिद्धत्वादिपर्याय छे ते हयातीगुण नथी “एम परस्पर तेमने अतद्भाव छे.” “के जे अतद्भावने
लीधे तेमने अन्यत्व छे.”
अतद्भावने लईने अन्यत्व छे. पृथक् प्रदेशने लईने अन्यत्व परनुं छे.
पण पोतामां, असंख्य प्रदेशमां, पृथक् प्रदेश नथी. छतां अतद्भावपणे अन्यत्व छे. ‘ते-भाव नथी’
ते अन्यत्व छे. गुणथी पर्याय अन्यत्व छे, गुणथी द्रव्य अन्यत्व छे, द्रव्यथी गुण अन्यत्व छे,
अतद्भावनी अपेक्षाए तेने अन्यत्व कहेवामां आवे छे. एना प्रदेशो भिन्न नहि होवा छतां (अन्यत्व
कहेवामां आवे छे) आहा...हा...हा! जेना प्रदेशो भिन्न छे- आ आत्माना प्रदेशो ने शरीरना प्रदेशो
भिन्न भिन्न छे. आहा...! तो आत्मा, शरीरने हलावी शकतो नथी. होठने हलावी शकतो नथी,
रोटलीना टुकडा करी शकतो नथी. दांतने आम खेंच करी (दबावी) शकतो नथी. आहा... हा!
(श्रोताः) पेटमां दांत नथी, तो चाववुं शी रीते...? (उत्तरः) आहा... हा! ई दांत दांतनुं काम
दांतनी पर्यायमां छे. दांतनी पर्याय जे छे सत्ता एनुं ई परमाणु जे दांतना छे तेमांय ई सत्तागुण छे.
एनी शक्तिमां सत्तागुण छे, एनाथी बीजा जे गुणो छे ई-रूपे सत्ता नथी. तेनी एकसमयनी
पर्यायनी सत्तानी, सत्तापणे छे. आहा... हा! आवुं स्वरूप छे! केवुं ते आ! आवो वीतरागनो
मारग! ओलुं तो कहेः छकायनी दया पाळवीने...!
(श्रोताः) दया तो पळेली ज पोतामां (उत्तरः)
आहा...! तुं कोण छो? केटली मर्यादामां छो? बीजा कोण छे, केटली मर्यादामां छे? एनुं यथार्थ ज्ञान,
ई तारी दया छे. जेम छे तेम जाणवुं ई तारी दया छे. अने जेम छे तेम न जाणवुं ई तारी हिंसा छे.
आहा... हा! आवुं छे! आ गाथाओ बधी झीणी छे!! पण छतां समजाय एवी छे.
(श्रोताः) आप
समजावो, तो समजाय! (उत्तरः) अहा... हा... हा... हा! (मुक्त हास्य)!
(अहींयां कहे छे केः) “एम परस्पर तेमने अतद्भाव छे के जे अतद्भावने लीधे तेमने
अन्यत्व छे.” के जे अतद्भावने लीधे’ एटले ‘ते-भाव’ नथी एने लीधे तेमने अन्यत्व छे. द्रव्य ते
गुणभाव नथी ने गुणभाव ते द्रव्यभाव नथी ने गुणभाव (के द्रव्यभाव) ते पर्यायभाव

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गाथा – १०७ प्रवचनसार प्रवचनो ४१२
नथी. ए अपेक्षाए त्रणने अतद्भावनी अपेक्षाए (एटले के) ‘ते-भाव ते नथी’ ए अपेक्षाए
अन्यत्व छे. ते द्रव्य ते गुणपणे नथी. ते गुण ते पर्यायपणे नथी, ते बीजागुणपणे नथी. ए रीते
अतद्भावने लीधे अन्यत्व छे. पृथक परमाणु, एक- एक द्रव्य जुदा एनी वात नहीं (ए तो प्रदेशे
ज जुदां छे.) ई तो पृथक् प्रदेश छे (तेथी) जुदां ज छे. आहा... हा! भारे काम! ए सीसपेननी
अणी कोई काढी शकतुं नथी एम कहे छे. कलमथी लखी शकतो नथी. बोली शकतो नथी, बोलवानी
जडनी अवस्था छे. तो ए पृथक्पणांमां गयुं! अहींयां तो अतद्भाव तरीके अन्यत्वनी वात हाले छे,
ओलां तो पृथक् प्रदेश छे माटे अन्यत्व छे. एनी हारे तो अहींयां कांई वात ज नथी. आहा.. हा!
आ तो अतद्भाव (एटले) ‘ते-भाव नथी’ ने “ते-ते भाव आ नथी” एवा अतद्भावनी
अपेक्षाए एकबीजामां प्रदेशभेद न होवा छतां अन्यपणुं कहेवामां आवे छे. आहा... हा... हा... हा! छे
के नहीं आमां जुओ ने? (पाठमां) आ सोनगढनुं लखाण नथी आ (शास्त्रमां). घणां बोले, एम के
सोनगढ नुं एकांत छे! एकांत कहीने काढी नाखे. अरे! भाई, सांभळ तो खरो! प्रभु! आहा... हा!
एकांत कोने कहेवुं? अनेकांत कोने कहेवुं? एनी खबर नथी’! (तने.) आहा.. हा.. हा!
“आ ज प्रमाणे सर्व द्रव्यो विषे समजवुं” जेम एकगुणनुं कह्युं स त्तानुं. के सत्ता अने द्रव्य
भिन्न, सत्ताना गुण भिन्न, अने सत्तानी पर्याय, सत्ताथी भिन्न! ए ज प्रमाणे सर्व द्रव्यो विषे
समजवुं.
“आ रीते आ गाथामां सत्तानुं उदाहरण लईने.” सत्तानुं उदाहरण आप्युं छे. एम ज्ञान-
दर्शन-आनंद कोईपण गुण, ए गुण गुणरूपे, ए गुण द्रव्यरूपे, ए गुण पर्यायरूपे भिन्न भिन्न छे.
आहा... हा!
“सत्तानुं उदाहरण लईने अतद्भावने स्पष्ट रीते समजाव्यो.”
(अहीं एटलुं विशेष छे के जे सत्तागुण विषे कह्युं ते अन्य विषे पण योग्य रीते समजवुं.”
जेम केः– सत्तागुणनी माफक, एक आत्माना पुरुषार्थगुणने.” वीर्यगुण लीधो. (जुओ!) वीर्य!
पुरुषार्थगुण आत्मामां एक छे अनादि अनंत. (ए) पुरुषार्थगुणने
‘पुरुषार्थी आत्मद्रव्य.’
पुरुषार्थपणे पुरुषार्थी आत्मद्रव्य. आहा... हा! पुरुषार्थगुणने अनेरागुणथी भिन्नपणुं “पुरुषार्थी
ज्ञानादिगुण’
छे? (पाठमां) एक आत्माना पुरुषार्थगुणने, पुरुषार्थी आत्मद्रव्य, पुरुषार्थी ज्ञान आदि
गुण, बीजो गुण लो एनाथी. “अने पुरुषार्थी सिद्धत्वादिपर्याय एम विस्तारी शकाय.” आहा...
हा... हा! एम समकितनी पर्याय छे, एनो श्रद्धागुण छे. श्रद्धागुण छे आत्मामां. समकित पर्याय छे.
ए श्रद्धागुण छे ए आत्मद्रव्य छे, ए श्रद्धागुण अने रागुणरूप नथी, अने ई श्रद्धागुण छे ते एक
समयनी पर्याय तरीके नथी. समकितनी पर्याय तरीके श्रद्धागुण नथी. श्रद्धागुण पर्याय तरीके नथी ने
पर्याय श्रद्धागुण तरीके नथी. अने श्रद्धागुण एक द्रव्य तरीके नथी. आहा... हा.. हा! आवुं छे. आ तो
सामे अधिकार आव्यो होय, त्यारे आवेने...! खेंचीने उपरथी लेवाय तो, बेसे झट! आ तो आमां
लखाण छे. अरे.. रे! एणे

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गाथा – १०७ प्रवचनसार प्रवचनो ४१३
दरकार करी नथी! मारुं शुं थशे! आहीं आंख मिंचाईने हाल्यो जशे! चोराशीना अवतारमां. सत्यनुं
शरण नहीं ले ने सत्य छे ते ते एने सत्यने सत्यपणे वस्तुने वस्तुपणे राख. श्रीमद् कहे छे.
श्रीमद्मां एक वाक्य छे. ‘वस्तुने वस्तुपणे राख’ तुं फेरफार करीश नहीं कांई! आहा...हा...हा!
(कहे छे) जेवी रीते द्रव्य छे तेवी रीते राख. जे रीते गुण छे ते रीते राख. जे रीते पर्याय छे
ते रीते राख. आहा... हा! अहींयां तो एकद्रव्य बीजा द्रव्यनुं करे (नहीं) एना ज वांधा छे,
मानवामां. ओलामां तो ई आवे छे ने! स्थानकवासीमां ‘दया ते सुखनी वेलडी, दया ते सुखनी
खाण.’ ‘अनंता जीव मोक्षे गया, दया तणा’ (ए ज जाणे) - प्रमाण’ - ई परनी दया, परनी
दया त्रणकाळ मां (आत्मा) करी शकतो नथी. आहा... हा... हा! हवे एनाथी एने धरम मानवो छे
ने मुक्ति करवी छे. परनी दयानो भाव छे ई राग छे. आहा... हा... हा! राग छे ई आत्माना
स्वरूपनी हिंसा छे! ‘पुरुषार्थसिद्धिउपाय’ मां छे. अमृतचंद्राचार्य! आ तो वीतरागना सिद्धांत छे
भाई! कल्पित नथी आ कांई, कल्पित बनावेलुं! क्यां’ य मेळनो’ खाय ने..! आ तो चारे बाजुथी
जुओ तो सत्नुं सत्पणुं ऊभुं रहे छे. आहा...हा...हा!
(अहींयां कहे छे केः) “अहीं एटलुं विशेष छे के जे सत्तागुण विषे कह्युं ते अन्य गुणो विषे
पण योग्य रीते समजवुं. जेम केः– सत्तागुणनी माफक, एक आत्माना पुरुषार्थगुणने ‘पुरुषार्थी
आत्मद्रव्य’ .
आहा...! “पुरुषार्थी ज्ञानादिगुण” अने ‘पुरुषार्थी सिद्धत्वादिपर्याय’ – एम
विस्तारी शकाय छे.”
आहा... हा! एम एक श्रद्धा नामनो गुण छे. जे श्रद्धाद्रव्य तरीके वर्णवाय छे.
ए श्रद्धा (गुण) अनेरा गुण तरीके नथी. अने ए श्रद्धा (गुण) समकितनी पर्याय तरीके नथी.
आहा... हा! सम्यग्दर्शननी पर्याय (ई तो एक समय छे.) श्रद्धागुण छे ई तो कायम छे. पर्याय तो
एक समयनी अवस्था छे. एटले ई श्रद्धागुणनी पर्याय नथी, पर्याय पर्यायनी छे (समकितनी.)
आहा.. हा.. हा!
(हवे कहे छे केः) “अभिन्न प्रदेशो होवाने लीधे आम विस्तार करवामां आवे छे.” पण ते
ते द्रव्यना ने गुणना अने पर्यायना प्रदेशो अभिन्न छे. जेम एक द्रव्यना प्रदेशथी बीजा द्रव्यना प्रदेश
भिन्न छे, ई तो सर्वथा अत्यंत अभाव छे. (एक-बीजा द्रव्यमां एकबीजा द्रव्यनो.) ए रीते अहींयां
नथी. अहींयां तो प्रदेशो अखंड छे-अभेद छे बधाना. (द्रव्यगुण पर्यायना.)
“अभिन्न प्रदेशो होवाने
लीधे आम विस्तार करवामां आवे छे.” छतां संज्ञा” द्रव्यनुं नाम ‘द्रव्य’, गुणनुं नाम ‘गुण’,
पर्यायनुं नाम ‘पर्याय’ ई संज्ञा- संज्ञा.
“लक्षण” गुणोनुं लक्षण द्रव्यनो आश्रय, द्रव्यनुं लक्षण द्रव्य
पोते स्वतंत्र, पर्यायनुं लक्षण (एक समयनुं) स्वतंत्र. आहा... हा... हा! “प्रयोजनादि” प्रयोजन-
द्रव्यनुं प्रयोजन गुणोने आश्रय देवो, एक ठेकाणे (ध्रुव) रहेवुं ई.

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गाथा – १०७ प्रवचनसार प्रवचनो ४१४
गुणनुं गुणपणे (ध्रुव) रहेवुं ई. पर्यायनुं प्रयोजन पर्याय द्रव्यने आश्रये रहे ते. एम प्रयोजनादि “भेद
होवाने लीधे पुरुषार्थगुणने तथा आत्मद्रव्यने, ज्ञानादि अन्यगुणने के सिद्धत्वादिपर्यायने अतद्भाव
छे.”
बे य वच्चे अतद्भाव छे. आहा... हा!
(कहे छे केः) ज्ञानगुण छे ते दर्शनगुण नथी, अने ज्ञाननी पर्याय छे ते ज्ञान (गुण) पणे
नथी. आहा.. हा! ज्ञानगुण छे ते एनी पर्यायपणे नथी. समकित-समकित-श्रद्धा नामनो गुण त्रिकाळ
छे. ई एनी वर्तमान पर्याय समकितपणे नथी. ए समकितपर्याय ते त्रिकाळीश्रद्धा गुणपणे नथी. अने
ते द्रव्यपणे नथी. आहा.. हा.. हा! आ तो आंखनो मोतियो ऊतारवो होय, एनी वात छे. आहा...
आहा! मोतियो ऊतारवा जवाना छे ने...? बीजी आंखनो आहा.. हा! आंखमां पडळ वळी गया छे
कहे छे. तारी द्रष्टिमां-ज्ञानमां पडळ वळी गया छे अज्ञानना (मिथ्यत्वना.) आहा.. हा! छतां ते
अज्ञाननी पर्याय, मिथ्यात्व-अज्ञानपणे छे. ए गुणपणे थई नथी. द्रव्यपणे छे ए गुणमां भूल नथी.
अने ए भूल (आत्म) द्रव्यमां नथी. आहा.. हा! आवुं छे! कई जातनो उपदेश आ ते!! अहींयां
क्यां’य आव्या छ- काय जीवने सामायिक करवी ने पोषा करवा ने पडिक्कमणा करवा चोविहार करवो
ने ई तो कांई आव्युं नहीं आमां!!
भाई! तुं शुं करी शके छो ए तो पहेलुं समज! के तारी मर्यादा शुं छे? तारी करवानी मर्यादा
तारी पर्यायमां छे. तारी करवानी मर्यादामां ए परने कांई तुं करी शके (एम मान) तो तारी
मर्यादामां तुं नथी. आहा... हा... हा! (श्रोताः) बावो बनावी दीधो! (उत्तरः) हें! बावो बनावी
दीधो! अहा.. हा! आहा... हा! दुकान उपर बेसे! हवे दररोज आम हजारोनी पेदाश होय, अनेत्रप
पांच-पांच, दश-दश, वीस हजार पैसानुं (रूपियानुं) रोकाण थतुं होय, शुं कहेवाय तमारे ई?
लाकडानो ई? (श्रोताः) गल्लो. (उत्तरः) हा, ई भराय आम पेट भरीने. पहेलां तो आ... आ
नहोतुं ने...! नोटुं नो’ती. रूपिया रोकडा (चांदीना सिक्का) अमारे नानो हडफो राखता हडफो!
समज्या? शुं कीधुं ई? हडफो! हडफानुं शुं कीधुं? गल्लो! ई राखता एमां कोई वखते ई आखो
रूपियाथी भराई गयो’ तो! वेपार हतो. ई तो सीतेर वरस पहेलानी वात छे. एकवार रोकडा
रूपियाथी ई आखुं भराई जाय, आम! दाणा ने (मालनुं) वेंचाण थई गयुं होय तो, त्यारे आ
(जीव) खुशी थाय के ओहोहोहो! आ ज तो त्रणसे रूपियानुं भराणुं, त्रणसें रोकडा! ते दि’ ओली-
नोट क्यां हती. आ भ्रम छे बधो!
(श्रोताः) आखो खोवाई जाय छे..! (उत्तरः) हें? खोवाई जाय
छे. आहा... हा! क्ये रस्ते चडी जाय छे? अज्ञानने रस्ते चडी जाय छे. आहा.. हा! सत्नो रस्तो
मूकी दईने असत्ने पंथे चडी जाय छे. खबर नथी एने. आहा... हा! नग्न साधु थाय तो य पण
‘कु-पंथे’ चडी जाय छे. ई रागनी क्रिया - दया-दान छे ई धरम छे, ए मने धरमनुं कारण छे. ई
मिथ्यात्वभावमां

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गाथा – १०७ प्रवचनसार प्रवचनो ४१प
चडी गयेला छे. आहा... हा.. हा! आवी वात छे.
(अहींयां कहे छे केः) “–एम विस्तारी शकाय छे–अभिन्न प्रदेशो होवाने लीधे आम
विस्तार करवामां आवे छे. छतां संज्ञा–लक्षण–प्रयोजनादि भेद होवाने लीधे पुरुषार्थगुणने अने
आत्मद्रव्यने.”
आहा.. हा! ए वीर्यगुण अने एना आत्मद्रव्यने, वीर्यगुणने अने ज्ञानादि
अनंतगुणने “ज्ञानादि अन्यगुणने के सिद्धत्वादिपर्यायने.” पुरुषार्थगुण छे एनी जोडे ज्ञान-
दर्शन-आनंद गुण छे. छतां तेने, अन्यगुणने के सिद्धत्व आदिपर्यायने (एटले) ए गुणनी
पर्यायने “अतद्भाव छे.” त्रण वच्चे अतद्भाव छे. ‘ते-आ नहीं, ते-आ नहीं, ते-आ नहीं,
आहा.. हा! पर्याय, ते गुण नहीं ने गुण ते द्रव्य नहीं ने द्रव्य ते गुण नहीं ने द्रव्य ते पर्याय
नहीं आहा... हा... हा!
“अतद्भाव छे के जे अतद्भाव.” के जे त्रण्यमां अतद्भाव कीधो. पर्याय
ते द्रव्य नहीं ने द्रव्य ते गुण नहीं ने गुण ते अन्य गुण नहीं. एवो जे अतद्भाव कहयो (ए
अतद्भाव)
“तेमनामां अन्यत्वनुं कारण छे.” ए अतद्भावमां भिन्न-भिन्न चीज (द्रव्य-गुण-
पर्याय) भिन्न छे ए अन्यत्वनुं ए कारण (अतद्भाव) छे. अने अन्यत्व छे ई. पृथकप्रदेश छे ई
अन्यत्व तो तद्न जुदुं (प्रदेश जुदा माटे चीज जुदी.) एक द्रव्यने अने बीजा द्रव्यने प्रदेश जुदा छे
तो अन्यत्व जुदुं. पण आ रीते अतद्भावनी अपेक्षाए तेने अन्यपणुं छे. प्रदेश पृथक् नहि होवा
छतां. आहा... हा... हा! आवो जैन धरम हशे? आवो! जैनपणुं बधुं ऊडाडी दीधुं लोकोए तो!
आहा... हा!
कहे छे केः आ एकबीजानां भावरूपे ई नहीं. तेथी अतद्भाव थयो. ए ज अन्यत्व छे बस!
ए अन्यत्व छे. ओलुं परनुं अन्यत्व तो प्रदेशभेदे छे. आ अतद्भावनी अपेक्षाए (एटलो)
अन्यत्वभाव छे. आहा... हा! बहुं झीणुं लखाण आव्युं.
विशेष आवशे......


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गाथा – १०८ प्रवचनसार प्रवचनो ४१६
हवे सर्वथा अभाव ते अतद्भावनुं लक्षण होवानो निषेध करे छेः-
जं दव्वं तण्ण गुणो जो गुणो सो तच्चमत्थादो ।
एसो हि अतब्भावो णेव अभावो त्ति णिद्दट्ठो
।। १०८।।
यद्रव्यं तन्न गुणो योऽपि गुणः स न तत्त्वमर्थात् ।
एष ह्यद्धावो नैव अभाव इति निर्दिष्टः ।। १०८।।
स्वरूपे नथी ने द्रव्य ते गुण, गुण ते नही द्रव्य छे,
–आने अतत्पणुं जाणवुं, न अभावने; भाख्युं जिने. १०८.
गाथा – १०८
अन्वयार्थः– [अर्थात्] स्वरूप-अपेक्षाए [यद द्रव्यं] जे द्रव्य छे [तत् न गुणः] ते गुण
नथी [यः अपि गुणः] अने जे गुण छे [सः न तत्त्वं] ते द्रव्य नथी; [एषः हि अतद्भावः]
अतद्भाव छे; [न एव अभावः] सर्वथा अभाव ते अतद्भाव नथी; [इति निर्दिष्टः] आम (जिनेन्द्र
द्वारा) दर्शाववामां आव्युं छे.
टीकाः– एक द्रव्यमां, जे द्रव्य छे ते गुण नथी, जे गुण छे ते द्रव्य नथी- ए रीते जे द्रव्यनुं
गुणरूपे अभवन (-नहि होवुं) अथवा गुणनुं द्रव्यरूपे अभवन ते अतद्भाव छे; कारण के आटलाथी
ज अन्यत्वव्यवहार (-अन्यत्वव्यवहार) सिद्ध थाय छे. परंतु द्रव्यनो अभाव ते गुण, गुणनो अभाव
ते द्रव्य - एवा लक्षणोवाळो अभाव ते अतद्भाव नथी. जो एम होय तो (१) एक द्रव्यने
अनेकपणुं आवे, (२) उभयशून्यता थाय (अर्थात् बन्ननो अभाव थाय), अथवा (३) अपोहरूपता
थाय. ते समजाववामां आवे छेः-
(द्रव्यनो अभाव ते गुण अने गुणनो अभाव ते द्रव्य एम मानतां दोष आ प्रमाणे आवेः)
(१) जेम चेतनद्रव्यनो अभाव ते अचेतनद्रव्य छे, अचेतनद्रव्यनो अभाव ते चेतनद्रव्य छे -
ए रीते तेमने अनेकपणुं (बे-पणुं) छे, तेम द्रव्यनो अभाव ते गुण, गुणनो अभाव ते द्रव्य-ए
रीते एक द्रव्यने पण अनेकपणुं आवे (अर्थात् द्रव्य एक होवा छतां तेने अनेकपणानो प्रसंग आवे).

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गाथा – १०८ प्रवचनसार प्रवचनो ४१७
(अथवा उभयशून्यतारूप बीजो दोष आ प्रमाणे आवेः)
(२) जेम सुवर्णनो अभाव थतां सुवर्णपणानो अभाव थाय, सुवर्णपणानो अभाव थतां
सुवर्णनो अभाव थाय- ए रीते उभयशून्यत्व (बन्नेनो अभाव) थाय, तेम द्रव्यनो अभाव थतां
गुणनो अभाव थाय, गुणनो अभाव थतां द्रव्यनो अभाव थाय- ए रीते उभयशून्यता थाय
(अर्थात् द्रव्य तेमज गुण बन्नना अभावनो प्रसंग आवे).
(अथवा अपोहरूपता नामनो त्रीजो दोष आ प्रमाणे आवेः)
(३) जेम पट- अभावमात्र ज घट छे, घट-अभावमात्र ज पट छे (अर्थात् वस्त्रना केवळ
अभाव जेटलो ज घडो छे अने घडाना केवळ अभाव जेटलुं ज वस्त्र छे) - ए रीते बन्नने
अपोहरूपता छे, तेम द्रव्य-अभावमात्र ज गुण थाय, गुण-अभावमात्र ज द्रव्य थाय- ए रीते आमां
पण (द्रव्य-गुणमां पण)
अपोहरूपता थाय (अर्थात् केवळ नकाररूपतानो प्रसंग आवे).
माटे द्रव्य अने गुणनुं एकत्व, अशून्यत्व ने अनपोहत्व ईच्छनारे यथोक्त ज (जेवो कह्यो
तेवो जा अतद्भाव मानवायोग्य छे. १०८.













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१. अपोहरूपता= सर्वथा नकारात्मकपणुं; सर्वथा भिन्नता. (द्रव्य अने गुणमां एकबीजानो केवळ नकार ज होय तो ‘द्रव्य गुणवाळुं छे’
आ गुण आ द्रव्यनो छे’ - वगेरे कथनथी सूचवातो कोई प्रकारनो संबंध ज द्रव्यने अने गुणने न बने.)
२. अनपोहत्व= अपोहरूपपणुं न होवुं ते; केवळ नकारात्मकपणुं न होवुं ते