Pravachansar Pravachano-Gujarati (Devanagari transliteration). Date: 29-06-1979; Gatha: 109.

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गाथा – १०८ प्रवचनसार प्रवचनो ४१८
प्रवचनः ता. २९–६–७९.
‘प्रवचनसार’ गाथा- १०८.
हवे सर्वथा अभाव ते अतद्भावनुं लक्षण होवानो निषेध करे छेः– अतद्भाव कीधो माटे
सर्वथा भिन्न छे, बीजा प्रदेशे (जे) भिन्न छे एम आ नथी.
जं दव्वं तण्ण गुणो जो गुणो सो तच्चमत्थादो ।
एसो हि अतब्भावो ण्ेव अभावो त्ति णिद्दिट्ठो
।। १०८।।
स्वरूपे नथी जे द्रव्य ते गुण, गुण ते नहि द्रव्य छे,
–अने अतत्पणुं जाणवुं, न अभावने; भाख्युं भाख्युं जिने. १०८.
आटली अपेक्षाए तेने अतत्पणुं कह्युं बीजी रीते अतत्पणुं छे नहीं. परनी अपेक्षाए (प्रदेश
भिन्नतानी अपेक्षाए) जे अतत्पणुं छे एवुं आ अतत्पणुं नथी. आत्मा अने परद्रव्यने तेम तद्न
भिन्नता छे. एवुं अहींयां नथी. अहींयां तो ‘ते-भाव ए भावपणे नथी’ ए अपेक्षाए अतत्पणुं छे.
आहा... हा... हा... हा! दादा, तमे तो दिगंबर पहेलेथी छो! तो वांच्युं नथी तमे आ. कंई अत्यारनुं
नथी आ. आ तो पुस्तक (‘प्रवचनसार’) पहेलेथी छे. कुंदकुंदआचार्य! (गाथा) एकसो आठ.
टीकाः– “एक द्रव्यमां, जे द्रव्य छे ते गुण नथी, “जे गुण छे ते द्रव्य नथी– ए रीते जे
द्रव्यनुं गुणरूपे अभवन (–नहि होवुं) अथवा गुणनुं द्रव्यरूपे अभवन.” द्रव्यनुं गुणरूपे अभवन
ने गुणनुं द्रव्यरूपे अभवन- बे नी (आ) अपेक्षा ए
“ते अतद्भाव छे.” ते रीते अतद्भाव छे.
“कारण के आटलाथी ज अन्यत्वव्यवहार (–अन्यत्वरूप व्यवहार) सिद्ध थाय छे! आहा... हा...
हा! केटलुं स्पष्ट कर्युं छे! ‘कारण के आटलाथी ज’ एटले केः द्रव्यनुं गुणरूपे नथी ने गुणनुं द्रव्यरूपे
नथी. एटलेथी ज अन्यत्वव्यवहार एटले अन्यत्वरूप व्यवहार, (सिद्ध) थाय छे.
“परंतु द्रव्यनो
अभाव ते गुण एम नथी. आहा... हा! द्रव्यनो अभाव ते गुण, गुणनो अभाव ते द्रव्य– एवा
लक्षणवाळो अभाव ते अतद्भाव नथी.”
आहा... हा! समजाणुं कांई? आहा.. हा! (जेम)
परद्रव्यनुं तद्न अन्यपणुं -भिन्न कर्युं, एवुं अन्यपणुं आमां नथी. द्रव्य बिलकुल गुणरूपे नथी ने
गुण, पर्याय रूपे नथी ई तो (अतद्भावनी) अपेक्षाए तद्न कीधुं. ‘अभाव ते अतद्भाव नथी’ “जो
एम होय तो (१) एक द्रव्यने अनेकपणुं आवे.”
आहा... हा! तो सत्तागुण, ज्ञानगुण, दर्शनगुण
एवा अनंतगुण, अनंत न रहे. अने तो अनंतगुण छे ई तो अनंत द्रव्य आवे (द्रव्य रूपे थई
जाय.) ‘एक द्रव्यने अनेकपणुं आवे, अथवा
“उभयशून्यता थाय.” (अर्थात् बन्नेनो अभाव
थाय.) बेय नो नाश थाय.

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गाथा – १०८ प्रवचनसार प्रवचनो ४१९
(तद्न अभाव रूपे) द्रव्य ते गुण नहीं ने गुण ते द्रव्य नहीं (जो एम होय तो) बेय नो नाश
थाय. आहा... हा... हा! झीणुं तो बहुं!! “परंतु द्रव्यनो अभाव ते गुण, गुणनो अभाव ते द्रव्य –
एवा लक्षणवाळो अभाव ते अतद्भाव नथी.’ जो एम होय तो एक द्रव्यने अनेकपणुं आवे,
उभयशून्यता थाय.
बेयनो अभाव आवे. अथवा अपोहरूपता थाय.” एक-बीजानो तद्न त्याग.
तद्न त्याग (एटले) द्रव्यने गुणनो त्याग, गुणने द्रव्यनो त्याग (ते अपोहरूपता थाय) तथा तेने
अन्यपणानो प्रसंग आवे. आहा... हा! ए पहेलो बोल कह्यो, बीजो बोल कहेशे विशेष.
प्रवचनः ता. २९–६–७९.
‘प्रवचनसार’ १०८ गाथा. एमां नीचेथी चाले छे. ‘उभयशून्यता थाय’ ई. फरीने लईए.
‘द्रव्यनो अभाव ते गुण ने गुणनो अभाव ते द्रव्य’ एम मानतां, प्रथम दोष आ प्रमाणे आवे.
फरीने (लईए छीए.) द्रव्य छे एनो अभाव ते, गुण छे. अन्यत्वव्यवहार बराबर छे. द्रव्य अने
गुणने अन्यत्व ते बराबर छे. पण द्रव्यनो अभाव ते गुण, अने गुणनो अभाव ते द्रव्य, ए वात
जूठी छे. एमां बेयनी शून्यता थई जाय छे.
“परंतु द्रव्यनो अभाव ते गुण, गुणनो अभाव ते
द्रव्य.” – एवा लक्षणवाळो अभाव ते अतद्भाव नथी. जो एम होय तो. (१) एक द्रव्यने
अनेकपणुं आवे, (२) उभयशून्यता थाय (अर्थात् बन्नेनो अभाव थाय), अथवा (३)
अपोहरूपता थाय. ते समजाववामां आवे छेः–
(ए पहेलो बोल कह्यो, हवे बीजो बोल.)
(अहींयां कहे छे केः) (द्रव्यनो अभाव ते गुण अने गुणनो अभाव ते द्रव्य एम मानतां,
प्रथम दोष आ प्रमाणे आवेः ए कहे छे. “(१) जेम चेतनद्रव्यनो अभाव ते अचेतनद्रव्य छे,
अचेतनद्रव्यनो अभाव ते चेतनद्रव्य छे.”
आहा... हा! चेतनद्रव्य छे एनो अभाव अचेतनद्रव्य छे.
करम, शरीर, वाणी, मन- बधुं अचेतन (छे.) ए अचेतनद्रव्यनो अभाव ते चेतनद्रव्य छे एम ठरे.
–ए रीते तेमने अनेकगणुं छे (बे–पणुं) छे, तेम द्रव्यनो अभाव ते गुण, अने गुणनो अभाव ते
द्रव्य– ए रीते एक द्रव्यने पण अनेकपणुं आवे (अर्थात् द्रव्य एक होवा छतां तेने अनेकपणानो
प्रसंग आवे.)
” द्रव्य ते गुण नहीं एम कीधुं. एत्रप रीते अन्यत्व छे. पण द्रव्यनो अभाव ते गुण,
अने गुणनो अभाव ते द्रव्य, - तो बे य सत्य नहीं समजावे. बेयनी शून्यता थशे. आवी हवे वातुं!
अहा... हा! आचार्ये वात सिद्ध करवा केटली (युक्तिओ आपी छे!) कारण के द्रव्य छे, ए
अनेकगुणनो पिंड छे. हवे ई गुण छे ते द्रव्य कहीए, तो तो गुण छे ई तद्भावे भिन्न छे. अने द्रव्य
छे ई तद्भावभिन्न छे. तद्भाव भिन्न छे अपेक्षाए अतद्भाव छे. तो अतद्भाव एवो नथी, के
बीजानो तद्न अभाव. एवो अन्यत्व (भाव)

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गाथा – १०८ प्रवचनसार प्रवचनो ४२०
नथी आहा... हा! आ तो बधा न्यायना ग्रंथ छे!
(अहींयां कहे छे केः) (अथवा उभयशून्यतारूप बीजो दोष आ प्रमाणे आवे.” (१) “जेम
सुवर्णनो अभाव थतां सुवर्णपणानो सुवर्णपणुं एनो अभाव थाय.” सुवर्ण एटले द्रव्य, सुवर्णनो
अभाव थतां सुवर्णपणानो अभाव थाय.
“सुवर्णपणानो अभाव थतां सुवर्णनो अभाव थाय– ए
रीते उभयशून्यता (बन्नेनो अभाव) थाय, तेम द्रव्यनो अभाव थतां गुणनो अभाव थाय, आहा...
हा! द्रव्यथी, गुण तद्रन अभाव छे. एम कहे (माने) तो बेयनी शून्यता आवे. जो द्रव्य तद्न भिन्न
अने गुण तद्न भिन्न (होय) तो द्रव्यनो पण अभाव थाय. गुणस्वभाववाळुं द्रव्य छे. तो जो
द्रव्यनो तद्न अभाव कहो तो गुणनो अभाव थई जाय. अने गुणनो अभाव कहो तो द्रव्यनो अभाव
थई जाय. को’ वेपारीने... आ न्याय पकडे! (श्रोताः) केम नो’ पकडे, वेपारीने बुद्धि नथी!
(उत्तरः) तमे तो वकील छो. तो आ (वेपारीनी वकीलात!) (श्रोताः) वेपारीने बुद्धि नथी?
(उत्तरः) आहा... हा! सिद्ध तो एम करवुं छे, केः त्रण छे-द्रव्य-गुण-ने पर्याय. तो ई अपेक्षाए
एनुं अन्यपणुं छे. पण द्रव्यनो अभाव ते गुण ने गुणनो अभाव ते द्रव्य, एम नथी. शांतिभाई!
आमां तमारे चोपडामां आवतुं नो’ होय क्यां’ य! आजे आव्युं छे (पत्रिकामां) संपूर्ण आहार
विना चालतुं नथी! (परंतु अहींयां तो) सिद्ध ई करवुं छे के (जे) गुण छे एनो भाव, द्रव्यथी
अतद्भाव छे. जेवो ते गुणभाव छे तेवो ज द्रव्यभाव छे एम नहीं. (कारण) द्रव्य एकरूप ‘भाव’
छे. गुणभाव अनेकरूप ‘भाव’ छे. आहा... हा! पण (एकबीजामां) तद्न अभाव जोवा जाव (तो
तो) द्रव्यना अभावे गुण पण नहीं रहे अने गुणना अभावे द्रव्य पण नहीं रहे. आहा... हा! एमां
(बे वच्चे) अतद्भाव तरीके अने रापणुं कहेवामां आव्युं, छतां पण एकबीजामां तद्न अभाव
तरीके, गणशो, तो बेय नी शून्यता थशे. समजाणुं कांई?
(कहे छे) आहा.. हा! आवुं वेपारीने तो आव्युं नो’ होय कोई दि! लोढाना वेपारमां आवे
छे आवुं? आहा... हा.. हा! अहींयां तो (कहे छे) परद्रव्यथी तो (आत्मद्रव्यने) अभाव छे. पण
दरेक पदार्थमां-द्रव्य अने गुण छे. ए (बे) वच्चे अतद्भाव छे. ए अतद्भावनी अपेक्षाए तेने
(द्रव्य अने गुणने) अन्यत्व कहेवाय छे. पण सर्वथा-द्रव्यमां गुण नथी ने गुणमां द्रव्य नथी तो तो
बेयनो अभाव थई जाय. आहा... हा! समजाणुं कांई? आहा... हा... हा! आचार्योए! अरे! जगतने
करुणा करीने! एक-एक (न्यायने) आ शब्दो! आ टीका! अप्रमत्तदशामां रहेवुं! जाणनार रहेवुं!
आहा.. हा! एमां वळी आ विकल्प (टीकानो) आव्यो तो आ टीका (रचाई गई.) आहा... हा...
हा! भव्योना हितने माटे.
(अहींयां कहे छे केः) “ए रीते उभयशून्यता थाय.” एटले बेय नो अभाव थई जाय, द्रव्यनो
ने गुणनो. (जो एम कोई माने) तद्न द्रव्यथी गुण जुदा ने गुणथी द्रव्य जुदुं (तो तो) बेयनो

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गाथा – १०८ प्रवचनसार प्रवचनो ४२१
अभाव थई जाय. एम तद्न बेय जुदा छे नहीं. मात्र एटलुं ज के ए भावरूपे ते नथी, द्रव्यना
भावरूपे गुण नथी ने गुणना भावरूपे द्रव्यभाव नथी, एटली अन्यरूपता ने अतद्भावने (अहींयां)
सिद्ध करवुं छे. पण द्रव्यथी गुण सर्वथा जुदा ने गुणथी द्रव्य सर्वथा जुदुं (होय तो तो) बेयनी
शून्यता थई जशे. द्रव्य गुणविना न होय तो गुण द्रव्य विना न होय. बराबर छे? (श्रोताः) जी.
हा. जी. हा!
(अहींया कहे छे केः) “(अथवा अपोहरूपता नामनो त्रीजो दोष आ प्रमाणे आवे.)”
(३) “जेम पट–अभावमात्र ज घट छे.” वस्त्रना पूरण अभावरूप घट छे. (अर्थात् वस्त्रना केवळ
अभाव जेटलो घडो छे अने घडाना केवळ अभाव जेटलुं्र ज वस्त्र छे.) – ए रीते बन्नेनो
अपोहरूपता छे.”
बन्ने वच्चेनो (सर्वथा नकारात्मकपणुं; सर्वथा भिन्नता.) नकार छे, “तेम द्रव्य–
अभाव मात्र ज गुण थाय, गुण अभावमात्र ज द्रव्य थाय.”
द्रव्यने गुणनो (सर्वथा) त्याग ने
गुणनो (सर्वथा नकारात्मकपणुं) त्याग ते द्रव्य- “ए रीते आमां पण (द्रव्य–गुणमां पण)
अपोहरूपता थाय (अर्थात् केवळ नकाररूपतानो प्रसंग आवे.) ”
आहा... हा! घडो छे अने घडाना
केवळ अभाव जेटलुंज वस्त्र छे- ए रीते बन्नेनो अपोहरूपता छे. (हवे) “तेम द्रव्य-अभावमात्र ज
गुण होय ने गुण-अभावमात्र ज द्रव्य होय (अर्थात्) द्रव्यना अभावमात्र ज गुण जुदो रहे, जेम
पटथी तद्दन जुदो घट छे. एम द्रव्यथी तद्न जुदो गुण रहे अने गुण- अभावमात्र ज द्रव्य होय,
गुणना अभावमात्र ज एकलुं द्रव्य जुदुं होय (गुण विनानुं) ए रीते आमां पण (द्रव्य-गुणमां पण)
अपोहरूपता थाय. (अर्थात् केवळ) नकाररूपता आवे- सर्वथा नकार आवे. (द्रव्य-गुणने) सर्वथा
नकार-सर्वथा भिन्नता एम बने नहीं. कथंचित् तद्भावनो जुदो (भिन्न) गणीने अतद्भाव कहयो छे.
‘तद्भावे-नहीं’ ए गणीने जुदा- जुदा कहयुं छे. पण तद्न-सर्वथा (भिन्नता) गुण विनानुं द्रव्य,
अने द्रव्य विनानो गुण- (एम) सर्वथा कहो तो बेयनी शून्यता थई जशे. द्रव्य विना गुण न रही
शके, गुण विना द्रव्य नहीं रही शके. आहा... हा... हा! आवुं क्यां’ य आवे तमारे वेपारमां? आहा..
हा.. हा... हा!
(श्रोताः) कोर्टमां आवे! (उत्तरः) कोरटमां क्यां कहेवुं छे, आ तो वेपारीओने कहेवुं
छे ने...! आहा... हा... हा!
(कहे छे केः) सिद्ध शुं करवुं छे? केः वस्तु जे छे. ए द्रव्य छे. हवे एना ज्ञान आदि सत्ता
आदि गुण छे. हवे ई बे वच्चे (एकबीजानो) सर्वथा अभाव मानो (एटले) द्रव्यना अभावरूपे
गुण अने गुणना अभावरूपे द्रव्य, तो बेयनो नकार थई जशे. बेय शून्य थई जशे. द्रव्य विना गुण
रही शके नहीं ने गुण विना द्रव्य रही शके नहीं. आहा... हा! समजाय छे?
(अहींयां कहे छे केः) “–ए रीते बन्नेने अपोहरूपता छे, तेम द्रव्यअभावमात्र ज

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गाथा – १०८ प्रवचनसार प्रवचनो ४२२
गुण थाय.” वस्तुना अभाव मात्र ज एकलो ज्ञानगुण जुदो! जेने द्रव्यने अने एने कांई संबंध
नथी. एम जो कहेवा जाव, बेय बेय वातनो (वस्तुनो) अभाव थई जशे. आहा.. हा! आचार्योए
काम! करुणानी कृपा आवी छे ने...! करुणा वरसे छे जगत उपर हे! प्राणीओ! जे रीते वस्तु छे तेने
(ते रीते) समजो. अने समज्या पछी अंतरथी, भेद करो परथी. अने अभेदनी द्रष्टिने खीलवो!!
अभेदद्रष्टिने खीलवो
!! आहा... हा! एवी वात करी छे. आ तो जेने संसारना भय लाग्या होय,
चोराशीना अवतारना डर लाग्या होय, एने माटे आ वात छे. जेने भवनो अभाव करवानो भाव
होय, एने आ रीते (एटले) जे रीते कह्युं छे ए रीते - एमांथी ओछुं, अधिक, विपरीत ए नहीं.
(एम यथार्थ समजीने.)
आहा... हा! जेमां शरीरनो तद्न अभाव ते आत्मा! अने आत्मानो तद्न अभाव (जेमां)
ते शरीर. बराबर छे? (अथवा) आ शरीरनो तद्न अभाव ते आत्मा! अने आत्मानो तद्न
अभाव ते शरीर. एम द्रव्यनो तद्न अभाव ते गुण, अने गुणनो तद्न अभाव ते द्रव्य. एम कहेवा
जाईश तो (एम मानीश तो) बेय नो नाश थई जशे. आमां समजाय छे कांई? आहा... हा! अरे!
दिगंबर संतोए तो गजब करी नाख्यो!! कल्याण करवानो मार्ग न्याल! न्याल करवुं छे आ तो!
आहा.. हा! ओलामां विष्णुमां कहे छे. स्वामीनारायणमां एम कहे. स्वामीनारायण एम कहे. न्याल
कर्या! ओला (सहजानंद) मांस (आदि) छोडावे काठीने (कोळी जेवी जातिने). ब्रह्मचारी कहेता के
एने लईने छाप बहु पडी जाय (समाजमां.) ब्रह्मचर्यनुं पाकुं बहु कहेता हो! एक फेरे एनी बाई
हती एक हती काठीयाणी, ई बेठी’ ती छतां एना तरफ द्रष्टि नहीं. पण वस्तुनी खबर नहीं
एटले...... (मिथ्यात्व तो खरुं) आहा... हा!
अहींयां कहे छे. आहा...हा! भगवान आत्मा, जेम परद्रव्यथी अभावस्वरूप छे. तेम पोतना
गुणथी तद्न अभावस्वरूप छे, अने द्रव्य छे ते गुणथी तद्न अभावस्वरूप छे- जेम वस्त्रथी घडो
तद्न अभावस्वरूप छे. घडाथी वस्त्र तद्न अभावस्वरूप छे-एम जो (द्रव्यगुणथी) अभावस्वरूप होय
तो शून्य थई जाय. आहा...हा! समजाणुं कांई? ध्यान राखे तो भाषा तो भाषा तो सादी छे. आ तो
मारग एवो छे बापु! आहा.. हा! सर्वज्ञभगवान! त्रिलोकनाथ! एमनी वाणी आवी ई गणधरोए
रची. एनो आ नमूनो रह्यो छे आ! आहा...हा! एम न समजवुं के आ साधारण अत्यारे पांचमो
आरो छे ने...! फलाणुं छे ने (ढीकणुं) छे... माटे! (आ तो) भगवाननी साक्षात् वाणी छे!!
त्रणलोकना नाथ, सर्वज्ञदेवनी वाणी छे प्रभु! तने परथी तद्न भिन्न बताव्यो. ए तो बराबर छे.
(वळी) तने-द्रव्य ने गुणथी अतद्भाव तरीके भिन्न बताव्यो. पण एथी तुं एम मानी ले के द्रव्य ते
गुण नहीं ने गुण ते द्रव्य नहीं (सर्वथा तो) मोटो दोष आवशे. (अने तेथी) गुण-गुणीना भेदनी
सिद्ध नहीं थाय, अने द्रव्य विना गुणनी (पण) सिद्धि न थाय, अने गुण विना द्रव्यनी पण सिद्धि
नहीं थाय, वात साधारण नथी. आहा..हा..हा! जंगलमां वस्या, संतो जगतने! आहा...हा...हा!

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गाथा – १०८ प्रवचनसार प्रवचनो ४२३
जाहेर करीने (जगतने) जागृत करे छे. जाहेर करीने जागृत करे छे ने (कहे छे) प्रभु तुं परथी तो
त्रिकाळ भिन्न (छो.) आ करमथी, शरीरथी, वाणीथी अरे! देव-गुरु छे एनाथी तुं तद्न भिन्न
(छो.) आहा... हा! (ए परने) द्रव्यने विषे मान. एम नथी.
(कहे छे) अमे (द्रव्य-गुण वच्चे) अन्यत्व कह्युं खरुं, द्रव्य ते गुण नहीं ने गुण ते द्रव्य नहीं
(एवुं) अन्यत्व, अतद्भाव तरीके, ‘ते-भाव नहीं’ (एटले) द्रव्यभाव ते गुणभाव नहीं, ए अपेक्षाए
(एटले के) द्रव्यभाव ते गुणभाव नहीं ने गुणभाव ते द्रव्यभाव नहीं. ए अपेक्षाए अमे अतद्भावरूपे
अन्यत्व कहयुं. अने एनो अर्थ तुं एवो लई जा ‘गुणमात्रनो अभाव ते द्रव्य अने द्रव्यमात्रनो अभाव
ते गुण’ तो बेयनी शून्यता थई जशे. आहा... हा! आ तो लोजिक छे. बहु न्याय! कायदा शास्त्र छे
भगवाननुं! सरकारना कायदा नोंधे छे ने आ वकीलो! आ तो भगवानना कायदा छे प्रभु! वस्तुनी
मर्यादा आ रीते छे. ए रीते मर्यादानुं ज्ञान यथार्थ न आवे, त्यां सुधी स्वभाव तरफ ढळी नहीं शके!
आहा... हा! जे रीते तेनी मर्यादाभेदनी अपेक्षाए छे. तो अतद्भावनी अपेक्षाए अन्यत्व छे. अने गुण
विनानुं एकलुं द्रव्य न रही शके ने द्रव्य विना एकला गुण न रही शके ई अपेक्षाए तेमां बेयभाव
एकसाथे छे. आहा... हा! (अर्थात्) बेय भाव (गुणभाव ने द्रव्यभाव) एकसाथे छे. द्रव्यभाव विना
गुणभाव न रहे अने गुणभाव विना द्रव्यभाव न रहे. (छतां) द्रव्यभाव ने गुणभाव वच्चे अतद्भाव
अन्यत्व तो कहयुं! आहा... हा... हा! आवी वात क्यां छे बापु? एकला! दिगंबर संतो ए तो जैनधर्म!
केवळज्ञानना केडायतो छे बापा! आ रस्ते ज केवळज्ञान थवानुं छे!
केवळीना कहेण छे. मोटा पुरुषना वेण छे. आहा... हा! परमात्मा त्रिलोकनाथना कहेण,
प्रभुना आव्या आ वेण, आहा...! एनो नकार न थाय. आहा...! तुं गमे एवा डहापणमां चडी गयो
हो, पण आ रीते नहीं होय तो डहापण तारुं नहीं काम आवे. आहा... हा!
“त्यां ने त्यां त्यां
समाई जा’ गुण छे एने द्रव्यमां अभेद रीते आहा... हा! छे भले अतद्भाव पण छतां गुण,
द्रव्यमां भेळवी दे!
आहा... हा... हा! त्यारे तने द्रव्यद्रष्टि थईने सम्यक् जेवुं सत्य छे, एवी सत्यद्रष्टि
प्रगटशे!
आहा... हा... हा... हा! जे द्रष्टि-सवारमां आव्युं हतुं ‘भेद–विज्ञान’ प्रथम मूळ कारण ज
ए छे.’
आहा... हा... हा! भेदविज्ञान ते मूळ कारण छे. ए तो, आत्मानो आश्रय लो (तेमां) परथी
जुदो पडीने आत्मानो आश्रय लीधो तेमां भेद-विज्ञान ज मूळकारण छे. भले (‘समयसार’ गाथा-
११)
भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठि हवदि जीवो।। भूतार्थनो आश्रय लईने सम्यग्दर्शन थाय, त्यां
पण भेद-विज्ञान ज आव्युं. आहा.. हा! परथी भिन्न; स्वभावथी अभिन्ननी द्रष्टि थतां सम्यग्दर्शन
थाय. त्यां पण परथी भिन्न ने स्वभावथी अभिन्ननी द्रष्टि थतां सम्यग्दर्शन न थाय. त्यां पण परथी
भिन्न ने स्वथी अभिन्ननी वात आवी. एटले भेद मूलतः कारण. कारण के अनंत द्रव्यो छे. एक होय
तो (भेद-ज्ञान न होय) (परंतु) अनंत द्रव्यो छे अने एक-एक

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गाथा – १०८ प्रवचनसार प्रवचनो ४२४
द्रव्यमां पण गुणभेद ने द्रव्यभेद छे. (माटे भेद-ज्ञान होय छे.) पण जेवो अन्यथी भिन्न भाव छे
(आत्माने) एवो गुण ने द्रव्य वच्चे अभाव नथी. आहा... हा! शुं कहुं एनो (भाव)! वात करे
छे! छे सादी (वात) पण बहु ऊंची! आहा... हा!
(अहींयां कहे छे केः) - “ए रीते बन्नेने अपोहरूपता छे, एटले बन्नेमां अपोहरूपता
(अर्थात्) बंनेनो नकार थई जाय. “तेम द्रव्यअभावमात्र ज गुण थाय, गुण–अभावमात्र ज द्रव्य
थाय– ए रीते आमां पण (द्रव्य– गुणमां पण) अपोहरूपता थाय.” अपोहरूपता (एटले अर्थ
जुओ फूटनोटमां) अपोहरूपता= सर्वथा नकारत्मकपणुं; सर्वथा भिन्नता. सर्वथा जुदापणुं थई जाय,
सर्वथा एकबीजानो त्याग, द्रव्यने गुणनो त्याग, गुणने द्रव्यनो त्याग, एम थई जाय. आहा... हा!
परथीय तो शून्य छे. परनुं तो ग्रहण -त्याग आत्मामां छे ज नहीं. परमाणुथी मांडीने छ द्रव्यो,
भगवान आदि- ए बधांनो ग्रहण- त्याग आत्मामां छे ज नहीं. एवो तो एनो स्वभाव छे. पण
एनो (द्रव्यनो) जे गुण छे. ए गुणने अने गुणीने (बे) वच्चे अतद्भाव (अन्यपणुं) छे. आहा...
हा! पर-त्रिलोकनाथथी तारुं जुदापणुं, ए तो बिलकुल अभावस्वरूप छे. सर्वथा अभावस्वरूप छे.
एम ज्ञान ते आत्मा नहीं ने आत्मा ते ज्ञान नहीं, एवो सर्वथा अभाव नथी एमां (आत्मामां) ई
तो अतद्भाव (छे.) एटले द्रव्यभाव छे ते गुणभाव नहीं गुणभाव छे ते द्रव्यभाव नही, पर्यायभाव
छे ते गुणभाव नही ई अपेक्षाए भावने भिन्न कहयो. (जो) सर्वथा भिन्न करवा जा (तो) नहीं रहे
द्रव्य, नहीं रहे गुण ने नहीं रहे पर्याय. आहा... हा! साधारण माणसने लागे के साव भेद आवो!
साधारण नथी ए भेद! आहा... हा! तद्न भिन्नता अने स्वभावभाव भिन्न - बे वच्चे भेद.
(एटले) परथी तद्न भिन्नता अने द्रव्यमां द्रव्यगुण साथे सर्वथा अभाव नहीं, पण अतद्भाव तरीके
अन्यत्व खरुं. एने पण तुं काढी नाख (ने सर्वथा अन्यत्व मान) तो नहीं हाले. (एम) गुण-
गुणीने अतद्भाव तरीके अन्यत्व कह्युं एम बे वच्चे सर्वथा अन्यत्व मान तो एकेय नहीं थाय.
आहा... हा!
(कहे छे केः) को’ सुखलालजी! आ प्रवचनसार वांच्युं छे के नहीं? (श्रोताः) हा, प्रभु!
(उत्तरः) वांच्युं छे. तमे तो नवरा छो. आहा... हा! “अर्थात् केवळ नकाररूपतानो प्रसंग आवे.”
माटे द्रव्य अने गुणनुं एकत्व, अशून्यत्व ने अनपोहत्व ईच्छनारे.”
कथंचित् प्रकारे द्रव्यने गुणनुं
एकपणुं, अशून्यत्व अने अनपोहत्व ईच्छनारे
“यथोक्त ज जेवो कह्यो तेवो ज अतद्भाव
मानवायोग्य छे.” अहींयां वात आ सिद्ध करी छेल्ले! अतद्भाव आ रीते मानवालायक छे. शी
रीते? के द्रव्य छे ते ‘भाव’ अने गुण छे ते ‘भाव’ ए बे वच्चे अतद्भाव छे. अन्यत्व एटलुं.
पण बेय वच्चे (एकबीजानो) तद्न अभाव छे (एटले के) अतद्भाव छे ते जुदी वात छे ने सर्वथा
अभाव छे ते जुदी वात छे. सर्वथा अभावमां तो द्रव्ये य भिन्न रहे ने गुणे य भिन्न रहे. द्रव्य विना
गुण ने गुण विना द्रव्य (मानो तो) बधुं शून्य थई जशे. आहा... हा... हा!

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गाथा – १०८ प्रवचनसार प्रवचनो ४२प
केटलो न्याय नीकळे छे!! माणसो तो बहारनी क्रियामां जोडाई गया!! पण वास्तविक तत्त्व जे छे ते
ज्ञानमां-भावमां भासन थवुं जोईए, ए कहे छे. केम के भासन विना एनी प्रतीति नहीं थाय.
आहा...हा!
(कहे छे) (वस्तुनी स्थिति) जे रीते छे भेद-अभेद, ए रीते भासन (भावनुं) न थाय, तो
तत्त्वनी रुचि (यथार्थ) नहीं थाय. आहा.. हा! न्यां कांई एने क्रियाकांड नहीं काम आवे जरीए!
आहा.. हा! (श्रोताः) क्रियाकांडमां तो कांई विचारवुं न पडे ने...! (उत्तरः) क्रियाकांडमां तो
विचारवानुं शुं? शुं द्रव्य के गुण के पर्याय...
(श्रोताः) विचारवानुं नहींने..... पण! (उत्तरः) कलेश
छे कलेश! बीजा अधिकारमां कीधुं छे कलेश छे कलेश (ए क्रियाकांड) करो तो करो! आहा.. हा! कलेश
छे! प्रभु! तुं तो रागथी तद्न अभावस्वभाव छो. गुणथी तो तद्न अभावस्वभाव नहीं, गुणथी तो
अतद्भाव छे, पण रागथी तो (आत्मा) तद्न अभावस्वरूप छे. आहा.. हा! समजाणुं कांई?
एनाथी तो तद्न अभावस्वरूप छे तेनी शरीरनी कांईपण क्रिया थाय, के शरीर तने क्रियामां कांईपण
मदद (रूप) थाय. एम बिलकुल नथी. कारण (के) बे वच्चे तद्न अभावस्वभाव छे. एम गुण
अने द्रव्य वच्चे तद्न अभावस्वभाव नथी. फकत ‘भाव’ मां फेर छे एटलो अतद्भाव कह्यो. के द्रव्य
ते गुण नहीं ने गुण ते द्रव्य नहीं. एटले कोई मानी ले के अतद्भाव छे एटले अन्यभाव छे तेथी
ए वस्तु ज जुदी छे तद्न (अर्थात्) द्रव्य जुदुं ने गुण जुदो- तो बेयनी शून्यता थशे. बापु! तने
यथार्थ नहीं समजाय. आहा...हा!
(कहे छे केः) अने अहींयां बेयने-गुणीने गुणने अतद्भाव कह्यो छतां ते जुदा नथी. द्रव्य
परिणमतां, गुण परिणमे छे भेगां. भाई! आवे छे ने ‘चिदविलास’ मां...! चिद्दविलास’मां (आवे
छे) गुण परिणमतां द्रव्य परिणमतुं नथी. जो तमे द्रव्यथी गुण तद्न जुदो ज कहो, तो गुण
परिणमतां द्रव्य परिणमतुं नथी. आहा... हा... हा! ‘चिद्दविलास’ मां छे.
[‘द्रव्य अधिकार’ (३)
द्रव्यत्वयोगाद् द्रव्यम्’ – “गुणपर्यायोने द्रव्या वगर द्रव्य न होय (द्रव्य पोते) द्रवीने. गुण–
पर्यायमां व्यापीने तेने प्रगट करे छे.”] द्रव्य परिणमतां गुण परिणमे छे, कारण के द्रव्य तो गुणनो
पिंड छे. द्रव्य परिणमतां गुण परिणमे छे. आहा... हा! (गुणी-गुण) बे वच्चे अतद्भाव होवा छतां,
बे वच्चे अन्यत्वनो, तद्न अन्यत्वनो अभाव छे. माटे द्रव्य परिणमतां गुण परिणमे छे. आहा...
हा... हा!
(श्रोताः) अनंतगुणनो पिंड छे द्रव्य एटले, द्रव्य परिणमे गुण तो परिणमे ज ने...!
(उत्तरः) द्रव्य परिणमे एटले गुण (परिणमे). गुण परिणमे एटले द्रव्य परिणमे एम नहीं. द्रव्य
परिणमतां गुण परिणमे छे. आहा...हा! कारण के अनंतगुणनो आश्रय द्रव्य छे.
(द्रव्याश्रया निर्गुणा
गुणाः) आधार एनो द्रव्य छे (तेथी) द्रव्य परिणमतां गुण परिणमे छे. आहा...हा...हा!

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गाथा – १०८ प्रवचनसार प्रवचनो ४२६
(कहे छे) सम्यग्दर्शननी पर्याय थतां पण, द्रव्य परिणमे छे ई. आहा... हा! त्रिकाळीध्रुवस्वरूप
हुं छुं एवी द्रव्य उपर द्रष्टि आपतां, द्रव्य परिणमे छे सम्यग्दर्शननी पर्यायपणे, आहा...! एमां
(बधा) गुण परिणमे (छे) ए आवी गयुं! जेटला गुणो छे एटला अंशपणे व्यक्तपणे-प्रगट
परिणमे छे. आहा... हा! द्रव्य परिणमतां-द्रव्य उपर द्रष्टि आपतां, द्रव्यनो आश्रय लेतां, द्रव्य
परिणमतां एना अनंतागुणो छे ते (सर्व) परिणमे छे. तेथी ते द्रव्यना परिणमतां - द्रष्टि द्रव्य उपर
राखतां (एकाग्र थतां) अनंतागुणो जेटला छे तेनी शक्तिनी व्यक्तता, परिणमनपणे प्रगट परिणमे
छे. आहा... हा... हा! आवुं (स्वरूप) कहे छे.
(श्रोताः) एनुं परिणमन पर्यायपणे... (उत्तरः)
द्रव्य परिणम्युं. द्रव्य परिणमे छे ई अत्यारे कहेवुं छे. ‘द्रवतीति द्रव्यं’ आहा...! परिणमे छे पर्याय,
पण अत्यारे (अभेदथी) द्रव्य (परिणमे छे) एम कहेवुं छे. गुण परिणमतो नथी एटलुं सिद्ध करवुं
छे (खरेखर) परिणमे छे तो पर्याय, गुण ने द्रव्य तो (ध्रुव) छे. आहा... हा! वात आतो कांई,
एम लेवुं छे ने अहींयां... (आ विषयमां) आहा... हा! (कोई कहे) के भई! गुण परिणमे (तेथी)
द्रव्य परिणमे छे (तो कहे छे) के एम नहीं. ‘चिद्दविलास’ मां छे.
(श्रोताः) ते बराबर छे...!
(उत्तरः) वात साची छे! बीजी वात एक. के आखुं चैतन्यद्रव्य छे एना उपर द्रष्टि ज्यां पडे छे तो
द्रव्य परिणमे छे एम. द्रव्य परिणमे छे एटले कोईपण गुण परिणम्या विनानो रहेतो नथी. ए द्रव्य
उपर द्रष्टि पडतां आहा... हा... हा... हा! द्रव्य ने गुण (वच्चे) तद्न अभाव नथी माटे अतद्भाव
तरीके (अन्यत्व) भले कीधुं, माटे द्रव्यद्रष्टि थतां जेटला गुणो द्रव्यमां छे ए बधा गुणनुं परिणमन
थईने व्यक्त प्रगट थाय छे. आहा... हा! कोई गुण बाकी रहेतो नथी. आहा... हा! आवुं छे. आ तो
बीजाने एम लागे, आ तो वातु ज छे पण कंई करवुं पडशे (के) नहीं? पण आ ‘करवुं’ नथी?
आवी सत्यवस्तु ‘आ’ छे एनो निर्णय करवो (ए ‘करवुं’ नथी!) आहा... हा!
‘मूळ चीज तो ए
छे. परथी भेद–ज्ञान करवुं ने सम्यग्दर्शन करवुं ए तो मूळचीज छे.’ आहा... हा! मूळनी खबर विना
पांदडां तोडया करे, मूळ तोडे नहीं (तो तो) एम ने एम पांदडां पाछां (पांगरशे.) साजां रहेशे.
बायडी-छोकरां छोडयां, दुकान छोडी एकलो थयो, नग्न थयो, पर वस्तुथी रहित थई गयो, पाछुं
मिथ्यात्व छे ते एम ने एम थई जशे. कसाईखाना मांडशे ई. आहा... हा... हा!
अने सम्यग्द्रष्टि वर्तमानमां अव्रतमां पडयो होय, छन्नुं हजार स्त्रीना (संगमां देखातो) पडयो
होय, पण ई केवळज्ञान पामशे. एनो सरवाळो (ई बधुं) छोडीने केवळज्ञान पामशे. आहा... हा...
हा! जेनो मूळत्याग करवो छे ई त्याग थयो त्यां, मिथ्यात्वनो! आहा...! मूळत्याग जे द्रव्यस्वभावने
आश्रये, द्रव्यनो आश्रय लीधो त्यां मूळत्याग थई गयो मिथ्यात्वनो. आहा... हा... हा... हा! अने आ
बहारना त्याग अनंतवार कर्या पण कांई मूळत्याग थयो नहीं. आहा... हा... हा! आवी वात छे!
लोकोने बेसे न बेसे! प्रभुना घरनी तो आ वात छे.’ आहा... हा... हा!

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गाथा – १०८ प्रवचनसार प्रवचनो ४२७
(अहींयां कहे छे केः) “माटे द्रव्य अने गुणनुं एकत्व, अशून्यत्व ने अनपोहत्व ईच्छनारे
यथोक्त ज (जेवो कह्यो तेवो जा अतद्भाव मानवायोग्य छे.” आ रीते ज मानवो (अर्थात्) आ
रीते ज अतद्भाव मानवो. एटले सर्वथा एकबीजामां एकबीजा नथी एम न मानवुं. आ रीते कीधुं
ए रीते मानवुं. हवे सत्ता ने द्रव्यनुं गुण - गुणीपणुं सिद्ध करे छे.
विशेष आवशे.......


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गाथा – १०९ प्रवचनसार प्रवचनो ४२८
हवे सत्ता ने द्रव्यनुं गुण-गुणीपणुं सिद्ध करे छेः-
जो खलु दव्वसहसावो परिणामो सो गुणो सदविसिट्ठो ।
सदवट्ठिदं सहावे दव्वं त्ति जिणोवदेसोऽयं ।। १०९।।
यः खलु द्रव्यभावः परिणामः सः गुणः सदविशिष्टः ।
सदवस्थितं स्वभावे द्रव्यमिति जिनोपदेशोऽयम् ।। १०९।।
परिणाम द्रव्यस्वभाव जे, ते गुण ‘सत्’ – अविशिष्ट छे;
‘द्रव्य स्वभावे स्थित सत् छे’ – ए ज आ उपदेश छे. १०९.
गाथा – १०९.
अन्वयार्थः– [यः खलु] जे, [द्रव्यस्वभावः परिणामः] द्रव्यना स्वभावभूत
(उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक) परिणाम छे [सः] ते (परिणाम) [सदविशिष्टः गुणः] ‘सत्’ थी
अविशिष्ट (-सत्ताथी कोई जुदो नहि एवो) गुण छे, [स्वभावे अवस्थितं] स्वभावमां अवस्थित
(होवाथी) [द्रव्यं] द्रव्य [सत्] सत् छे’ - [इति जिनोपदेशः] एवो जे (९९ मी गाथामां
कहेलो) जिनोपदेश [अयम्] ते ज आ छे (अर्थात् ९९ मी गाथाना कथनमांथी आ गाथामां कहेलो
भाव सहेजे नीकळे छे.)
टीकाः– द्रव्य स्वभावमां नित्य अवस्थित होवाथी सत् छे- एम पूर्वे (९९ मी गाथामां)
प्रतिपादित करवामां आव्युं छे; अने (त्यां) द्रव्यनो स्वभाव परिणाम कहेवामां आव्यो छे. अहीं एम
सिद्ध करवामां आवे छे के- जे द्रव्यना स्वभावभूत परिणाम छे, ते ज ‘सत्’ थी अविशिष्ट (-
अस्तित्वथी अभिन्न एवो, अस्तित्वथी कोई बीजो नहि एवो) गुण छे.
द्रव्यना स्वरूपनी वृत्तिभूत एवुं जे अस्तित्व द्रव्यप्रधान कथन द्वारा ‘सत्’ शब्दथी कहेवामां
आवे छे, तेनाथी अविशिष्ट (-ते अस्तित्वथी अनन्य) गुणभूत ज द्रव्यस्वभावभूत परिणाम छे;
कारण के द्रव्यनी
*वृत्ति त्रण प्रकारना समयने (-भूत, वर्तमान ने भविष्य एवा त्रणे काळने)
स्पर्शती होवाथी (ते वृत्ति अर्थात् अस्तित्व.) प्रतिक्षणे ते ते स्वभावे परिणमे छे.
(आ प्रमाणे) त्यारे प्रथम तो, द्रव्यना स्वभावभूत परिणाम छे; अने ते
(उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक परिणाम), अस्तित्वभूत एवी द्रव्यनी वृत्तिस्वरूप होवाने लीधे, ‘सत्’ थी
अविशिष्ट एवो, द्रव्यविधायक (-द्रव्यने रचनारो) गुण ज छे. - आ रीते सत्ता ने द्रव्यनुं गुण-
गुणीपणुं सिद्ध थाय छे. १०९.
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* वृत्ति = वर्तवुं ते; हयात रहेवुं ते; टकवुं ते.