Ratnakarand Shravakachar-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 27-28.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

रत्नकरंडक श्रावकाचार
[ ८७
ननु कुलैश्वर्यादिसम्पन्नैः स्मयः कथं निषेद्धुं शक्य इत्याह
यदि पापनिरोधोऽन्यसम्पदा किं प्रयोजनम्
अथ पापास्रवोऽस्त्यन्यसम्पदा किं प्रयोजनम् ।।२७।।

‘पापं’ ज्ञानावरणाद्यशुभं कर्म निरुद्ध्यते येनासौ ‘पापनिरोधो’ रत्नत्रयसद्भावः स यद्यस्ति तदा ‘अन्यसम्पदा’ अन्यस्य कुलैश्वर्यादेः सम्पदा सम्पत्त्या किं प्रयोजनं ? न किमपि प्रयोजनं तन्निरोधेऽतोऽप्यधिकाया विशिष्टतरायास्तत्सम्पदः सद्भावमवबुद्ध्यमानस्य तन्निबन्धनस्मयस्यानुत्पत्तेः ‘अथ पापास्रवोऽस्ति’ पापस्याशुभकर्मणः आस्रवो मिथ्या- होतो नथी. (तेथी धार्मिक पुरुषोनो तिरस्कार करतां पोताना धर्मनो तिरस्कार थाय छे. धर्म अने धर्मीने अविनाभाव संबंध छे.) २६.

कुळऐश्वर्यादि युक्त पुरुषो द्वारा गर्वनो निषेध करवो शी रीते शक्य छे? ते कहे छे

धाार्मिक पुरुषोनो तिरस्कार उचित नथी.
श्लोक २७

अन्वयार्थ :[यदि ] जो [पापनिरोधः ] पापनो (मिथ्यात्वनो) निरोध होय तो [अन्य सम्पदा ] अन्य विभूतिनुं [किं प्रयोजनम् ] शुं प्रयोजन? अथवा जो [पापास्रव अस्ति ] पापनो आस्रव होय तो [अन्य सम्पदा ] अन्य विभूतिथी [किं प्रयोजनम् ] शुं प्रयोजन?

टीका :पाप निरोधः’ पापंज्ञानावरणादि अशुभ कर्म जेनाथी (जे भावथी) निरोध थाय एवा पापनो निरोध अर्थात् मिथ्यात्वनो अभाव होय अर्थात् जो रत्नत्रयनो सद्भाव होय तो अन्य सम्पदा’ अन्य (कुळ-ऐश्वर्यादिनी) संपदाथीविभूतिथी किं प्रयोजनम्’ शो लाभशुं प्रयोजन? कांई पण प्रयोजन नथी; कारण के तेनो (पापनो) निरोध थतां आथी (आ संपदाथी) पण अधिक विशिष्टतर रत्नत्रयनी ए संपदानो सद्भाव माननारने ते संबंधी गर्वनी अनुत्पत्ति (गर्वनो अभाव) छे. अथ पापास्रवः अस्ति’ अगर जो पापनोअशुभ कर्मनो आस्रव मिथ्यात्व, अविरति आदि होय तो पछी १. ननु कुलबलैश्वर्यसम्पत्तौ घ०