Ratnakarand Shravakachar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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रत्नकरंडक श्रावकाचार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

‘धर्मकिल्विषात्’ धर्ममाहात्म्यात् खलु श्वापि देवो भवति किल्विषात् पापोदयात् पुनर्देवोऽपि श्वा भवति यत एवं, ततः ‘कापि’ वाचामगोचरा ‘नाम’ स्फु टं ‘अन्या’ अपूर्वाऽद्वितीया ‘सम्पद्’ विभूतिविशेषो ‘भवेत्’ कस्मात् ? धर्मात् केषां ? ‘शरीरिणां’ संसारिणां यत एवं, ततो धर्म एव प्रेक्षावतानुष्ठातव्यः ।।२९।।

तथानुतिष्ठता दर्शनम्लानता मूलतोऽपि न कर्तव्येत्याह श्वा’ कूतरो जायते’ थाय छे. शा कारणे? धर्मकिल्विषात्’ धर्मना माहात्म्यथी खरेखर कूतरो पण देव थाय छे अने किल्विषात् पापना उदयथी देव पण कूतरो थाय छे. ए प्रमाणे छे तेथी, कापि’ कोई (वचन अगोचर) नाम’ खरेखर अन्या’ अपूर्व अद्वितीय सम्पद्’ विभूति विशेष प्राप्त थाय छे. शाथी? धर्मात्’ धर्मथी. कोने? शरीरिणां’ संसारीओने. एम छे तेथी आत्महित इच्छनारे निश्चय धर्मनुं अनुष्ठान करवुं.

भावार्थ :सम्यग्द्रष्टि जीवने अंशे शुद्धता होय छे, तेनाथी संवरनिर्जरा थाय छे अने सहचररूपे जेटली अशुद्धता छे, तेनाथी आस्रवबंध थाय छे.

सम्यग्द्रष्टि तो शुभभाव अने तेना फळमां राचतो नथी पण तेनो अभाव करी, शुद्धभावमां रमवानी झंखना ज करे छे.

मिथ्याद्रष्टिनो शुभभाव उत्तरोत्तर अधोगतिनुं कारण छे, कारण के शुभभाव अने तेना फळमां ते एटलो बधो रच्योपच्योआसक्त रहे छे के तेने तीव्र पापबंध अवश्य थाय छे. जेना फळस्वरूप तेने नीच गति ज प्राप्त थाय छे.

सम्यग्द्रष्टिने शुभभाव आवे छे, पण तेनो तेने आदर नथी; तेमां तेनी हेयबुद्धि छे. तेने पोताना चारित्रमां एक कलंक समान गणे छे. अशुभवंचनार्थे हेयबुद्धिए आवो शुभभाव सम्यग्द्रष्टिने तेनी साधकदशामां आवे छे अने तेनाथी अल्पबंध पण थाय छे, परंतु मिथ्याद्रष्टिने जेवो तीव्रबंध थाय छे तेवो बंध ज्ञानीने थतो नथी. २९.

सम्यग्दर्शननुं पालन करनार जीवे प्रारंभथी ज सम्यग्दर्शनमां मलिनता लाववी जोईए नहि ते कहे छे