Ratnakarand Shravakachar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

रत्नकरंडक श्रावकाचार
[ ९५

त्रण लोक, त्रण काळमां सम्यग्दर्शन जेवी सुखकारी बीजी कोई वस्तु नथी; ते सर्व धर्मोनुं मूळ छे. एना विना धर्मना नामे थती बधी क्रिया दुःखकारी छे.

प्रस्तुत श्लोक ३१ दर्शावे छे के श्रावकने पांचमा गुणस्थानके अंशे निश्चय मोक्षमार्ग होय छे, केम के तेने जघन्य रत्नत्रय मोक्षमार्ग न होय तो तेने सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र होई शके नहि.

वळी ते त्रणेमां सम्यग्दर्शननी उत्कृष्टता बताववा माटे आचार्ये मूळ श्लोकमां साधिमान’ अने कर्णधार’ शब्दो वापर्या छे अने टीकाकारे तेने माटे ‘उत्कृष्ट’ अने ‘प्रधान’ शब्दोनो उपयोग कर्यो छे.

भगवान कुंदकुंदाचार्ये पण श्री प्रवचनसार गाथा ६मां सम्यग्दर्शनने मोक्षमार्गमां ‘प्रधान’ कह्युं छे.

प्रधान कहेवानुं कारण ए छे के संसारसमुद्रने पार करवा माटे सम्यग्दर्शनरूपी कर्णधारने आधीन मोक्षमार्गरूपी नौकानी (नावनी) प्रवृत्ति थई शके छे. तेथी सम्यग्दर्शनरूपी कर्णधार विना मोक्षमार्गरूपी नौका केम चाली शके? न ज चाली शके.

वळी श्रावकने पोताने सम्यग्दर्शन थयुं छे एवी जाण न होय तो ते मोक्षमार्गी केवी रीते होई शके? माटे सिद्ध थयुं के सम्यग्दर्शननी जाण श्रावकने अवश्य होय ज छे.

करणानुयोगना शास्त्रमां पण कह्युं छे के सम्यग्दर्शन विना साचो संयम होई शके नहि. श्री धवल पुस्तक १, पृष्ठ १४४, श्लोक ४नी टीकामां लख्युं छे के

‘‘संयमन करवाने संयम कहे छे. संयमनुं आ प्रकारनुं लक्षण करवाथी द्रव्ययम अर्थात् भावचारित्रशून्य द्रव्यचारित्र, संयम होई शकतो नथी. कारण के संयम शब्दमां ग्रहण करवामां आवेला ‘सं’ शब्दथी तेनुं निराकरण करी दीधुं छे.’’

‘‘पृष्ठ ३६९मां पण अभेदनी अपेक्षाए पर्यायनुं पर्यायीरूपथी कथन कर्युं छे. सम्’ उपसर्ग सम्यक् अर्थनो वाची छे, तेथी सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञानपूर्वक यताः’ अर्थात् जेओ बहिरंग अने अंतरंग आस्रवोथी विरत छे तेमने संयत कहे छे.’’

(श्री धवल पुस्तक १, पृष्ठ ३६९ श्लोक १२३नी टीका)

वळी धवल पुस्तक १३ पृष्ठ २८८मां शंकासमाधान द्वारा कह्युं छे के

शंकाःचारित्रथी श्रुतज्ञाननी प्रधानता कया कारणथी छे?