Ratnakarand Shravakachar-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 33 samyagdarshanani utkrushtAnu biju karaN.

< Previous Page   Next Page >


Page 90 of 315
PDF/HTML Page 114 of 339

 

१०० ]

रत्नकरंडक श्रावकाचार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान्
अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोहो मोहिनो मुनेः ।।३३।।

‘निर्मोहो’ दर्शनप्रतिबन्धकमोहनीयकर्मरहितः सद्दर्शनपरिणत इत्यर्थः इत्थंभूतो गृहस्थ मोक्षमार्गस्थो भवति ‘अनगारो’ यतिः पुनः ‘नैव’ मोक्षमार्गस्थो भवति किंविशिष्टः ? ‘मोहवान्’ दर्शनमोहोपेतः मिथ्यात्वपरिणत इत्यर्थः यत एवं ततो गृही गृहस्थो यो निर्मोहः स ‘श्रेयान्’ उत्कृष्टः कस्मात् ? मुनेः कथंभूतान् ? ‘मोहिनो’ दर्शनमोह- युक्तात् ।।३३।।

सम्यग्दर्शननी उत्कृष्टतानुं उदाहरण सहित बीजुं कारण.
श्लोक ३३

अन्वयार्थ :[ निर्मोह ] दर्शनमोह रहित (सम्यग्द्रष्टि) [गृहस्थः ] गृहस्थ [मोक्षमार्गस्थः ] मोक्षमार्गमां स्थित छे, किन्तु [मोहवान् ] दर्शनमोहसहित (मिथ्याद्रष्टि द्रव्यलिंगी) [अनगारः ] मुनि [मोक्षमार्गस्थः ] मोक्षमार्गमां स्थित [न एव ] नथी ज. तेथी [मोहितः ] मिथ्यात्वी (द्रव्यलिंगी) [मुनेः ] मुनि करतां [निर्मोहः ] मिथ्यात्वरहित (सम्यग्द्रष्टि) [गृही ] गृहस्थ [श्रेयान् ] श्रेष्ठ छे.

टीका :निर्मोहो’ दर्शनना (सम्यग्दर्शनना) प्रतिबंधक मोहनीय कर्मथी रहित, सम्यग्दर्शनरूप परिणत एवो गृहस्थ मोक्षमार्गमां स्थित छे, परंतु अनगारो’ यति (मुनि) पण नैव’ मोक्षमार्गमां स्थित नथी ज. केवो मुनि? मोहवान्’ दर्शनमोह युक्त मिथ्यात्वरूप परिणत एवो. तेथी जे गृहस्थ निर्मोह (दर्शनमोहरहित) छे ते श्रेयान्’ उत्कृष्ट छे. कोनाथी? मुनिथी. केवा (मुनिथी)? मोहिनो’ दर्शनमोह सहित (मुनिथी).

भावार्थ :दर्शनमोह विनानोअर्थात् सम्यक्त्व सहित गृहस्थ तो मोक्षमार्गमां छे, मोक्ष तरफ जई रह्यो छे, पण मोहवान (मिथ्याद्रष्टि) अणगार (मुनि) मोक्षमार्गी नथी, ते तो संसारना मार्गे जई रह्यो छे.

जेने मोह अर्थात् मिथ्यात्व नथी एवो असंयत सम्यग्द्रष्टि मोक्षमार्गी छे, कारण के सातआठ देवमनुष्यना भव ग्रहण करी नियमथी ते मोक्ष जशे, पण मुनिव्रतधारी मिथ्याद्रष्टि साधु थयो छे तोपण मरीने भवनत्रयादिकमां ऊपजी संसारमां ज परिभ्रमण करशे.