Ratnakarand Shravakachar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

रत्नकरंडक श्रावकाचार
[ १०१

श्रावक गृहस्थ पंचम गुणस्थानवर्ती छे अने सम्यग्दर्शन रहित मुनि मिथ्याद्रष्टि होवाथी प्रथम गुणस्थानवर्ती छे. मिथ्याद्रष्टि मुनिथी सम्यग्द्रष्टि गृहस्थ श्रेष्ठ छे. कारणथी पण सम्यग्दर्शन सर्वोत्कृष्ट छे.

विशेष

श्री कुंदकुंदाचार्ये दर्शनपाहुडमां कह्युं छे के

जे सम्यग्दर्शनथी भ्रष्ट छे ते भ्रष्ट छे, कारण के ते संसारमां परिभ्रमण कर्या ज करे छे, अनंतकाळे पण निर्वाणने पामतो नथी; परंतु जे सम्यग्दर्शन युक्त छे पण चारित्रथी भ्रष्ट थयो छे, ते देवमनुष्यना थोडाक भव करी नियमथी निर्वाण पामे छे.

‘‘असंयतदेशसंयत सम्यग्द्रष्टिने कषायोनी प्रवृत्ति तो छे, परंतु श्रद्धानमां तेने कोई पण कषाय करवानो अभिप्राय नथी अने द्रव्यलिंगीने शुभ कषाय करवानो अभिप्राय होय छे, श्रद्धानमां तेने भलो जाणे छे, माटे श्रद्धान अपेक्षाए असंयत सम्यग्द्रष्टिथी पण तेने अधिक कषाय छे.

‘‘वळी द्रव्यलिंगीने योगोनी प्रवृत्ति शुभरूप घणी होय छे अने अघाति कर्मोमां पुण्य-पाप बंधनो भेद शुभ-अशुभ योगोने अनुसारे छे, माटे ते अंतिम ग्रैवेयक सुधी पहोंचे छे. पण ए कांई कार्यकारी नथी, कारण के अघाति कर्म कांई आत्मगुणनां घातक नथी. तेना उदयथी ऊंचा-नीचा पद पामे तो तेथी शुं थयुं? ए तो बाह्य संयोगो मात्र संसारदशाना स्वांग छे अने पोते तो आत्मा छे, माटे आत्मगुणना घातक जे घातिकर्म छे तेनुं हीनपणुं कार्यकारी छे. हवे घातिकर्मोनो बंध बाह्य प्रवृत्ति अनुसार नथी पण अंतरंग कषाय अनुसार छे, तेथी ज द्रव्यलिंगीनी अपेक्षाए असंयत वा देशसंयत सम्यग्द्रष्टिने घतिकर्मोनो बंध थोडो होय छे. द्रव्यलिंगीने तो सर्व घातियां कर्मोनो बंध घणी स्थिति-अनुभाग सहित होय छे, त्यारे असंयतदेशसंयत सम्यग्द्रष्टिने मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधी आदि कर्मोनो बंध तो छे ज नहि, तथा बाकीनी प्रकृतिओनो बंध होय छे पण ते अल्पस्थिति-अनुभाग सहित होय छे.

‘‘द्रव्यलिंगीने गुणश्रेणि निर्जरा कदी पण थती नथी, त्यारे सम्यग्द्रष्टिने कोई वेळा थाय छे तथा देश-सकळ संयम थतां निरंतर थाय छे, माटे मोक्षमार्गी थयो छे. एटला माटे द्रव्यलिंगी मुनिने शास्त्रमां असंयतदेशसंयत सम्यग्द्रष्टिथी हीन कह्यो छे.......’’३३. १. मोक्षमार्ग प्रकाशक गुजराती आवृत्ति, अध्याय ७, पृष्ठ २५२.