Ratnakarand Shravakachar-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 35 samyagdrashti jiv kya upajato naThi.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

रत्नकरंडक श्रावकाचार
[ १०३
इतोऽपि सद्दर्शनमेव ज्ञानचारित्राभ्यामुत्कृष्टमित्याह
(आर्यागीतिछन्दः)
सम्यग्दर्शनशुद्धा नारकतिर्यङ्नपुंसकस्त्रीत्वानि
दुष्कुलविकृताल्पायुर्दरिद्रतां च वज्रन्ति नाप्यव्रतिकाः ।।३५।।

भावार्थ :त्रण काळ अने त्रण लोकमां सम्यक्त्व समान कोई पदार्थ संसारी जीवोने कल्याणकारी नथी; अर्थात् इन्द्र, अहमिन्द्र, भुवनेन्द्र, चक्री, नारायण, बलभद्र अने तीर्थंकरादिक समस्त चेतन पदार्थो अने मणिमंत्र, औषधादिक समस्त अचेतन पदार्थो सम्यक्त्व समान उपकारक नथी, कारण के तेना सद्भावमां अव्रती गृहस्थ पण द्रव्यलिंगी मुनि करतां उत्तम गणाय छे. वळी अव्रती सम्यग्द्रष्टि देवमनुष्यना थोडाक भव करीअर्थात् स्वर्गादिकनां सुख भोगवी, नियमथी मोक्ष पामे छे; अने मिथ्यात्व समान कोई पदार्थ जीवने अकल्याणकारी नथी, कारण के तेना सद्भावमां महाव्रतधारी द्रव्यलिंगी मुनि पण अव्रती सम्यग्द्रष्टि गृहस्थथी हीन मनाय छे.

वळी दोलतरामजी कृत ‘छढाळा’मां कह्युं छे के

तीनलोक तिहुंकालमांहि नहिं दर्शन सौ सुखकारी ।
सकल धरमको मूल यही इस बिन करनी दुःखकारी ।। (छहढाला ३
/१६)

त्रण लोक अने त्रण काळमां सम्यक्त्व समान अन्य कोई सुखकारी नथी, ते सर्व धर्मोनुं मूळ छे, तेना विना सर्व ज्ञान, व्रत, क्रियाबधुं वृथा छे अने दुःखनुं कारण छे.

तेथी मोक्षमार्गमां सम्यक्त्वनी ज उत्तमता छे. ३४. आथी पण सम्यग्दर्शन ज ज्ञान अने चारित्रथी उत्कृष्ट छे एम कहे छे

सम्यग्द्रष्टि जीव सम्यग्द्रष्टि जीव ककाां काां ©पजतो नथी?ाां काां ©पजतो नथी?
श्लोक ३५

अन्वयार्थ :[सम्यग्दर्शनशुद्धाः ] सम्यग्दर्शनथी शुद्ध (सम्यग्द्रष्टि) जीवो [अव्रतिकाः ] व्रत रहित होवा छतां पण [नारकतिर्यङ्नपुंसकस्त्रीत्वानि ] नारकपणाने, तिर्यंचपणाने, नपुंसकपणाने अने स्त्रीपणाने तथा [दुष्कुलविकृताल्पायुर्दरिद्रताम् ] नीचकुलीनताने, शरीरनी बेडोळताने, अल्पायुताने अने दरिद्रताने [न व्रजन्ति ] प्राप्त