Ratnakarand Shravakachar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

रत्नकरंडक श्रावकाचार
[ १०५

त्यां पण एटली विशेषता थई जाय छे, के सातमा नरकनो आयुबंध कर्यो होय तो ते प्रथम नारकनो नारकी थाय, एकेन्द्रिय निगोदनो आयुबंध कर्यो होय तो ते उत्तम भोगभूमिमां पंचेन्द्रिय तिर्यंच थाय, लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यनो आयुबंध कर्यो होय तो ते उत्तम भोगभूमिनो मनुष्य थाय, व्यंतरादिक नीच देवोनो आयुबंध कर्यो होय तो ते कल्पवासी महर्द्धिक देव थाय, अन्य स्थानोमां ऊपजे नहि.

‘छढाळा’मां ३/१६मां कह्युं छे के
‘‘प्रथम नरक विन षट् भू ज्योतिष, वान भवन षंढ नारी,
थावर विकलत्रय पशुमें नहिं, उपजत सम्यक्धारी.’’

सम्यग्द्रष्टि जीव प्रथम नरक सिवाय (नरकायुना बंध पछी सम्यक्त्व पामे तो) बाकीना छ नरकोमां, ज्योतिषी, व्यंतर अने भवनवासी देवोमां, नपुंसकनी पर्यायमां, स्त्री पर्यायमां, स्थावर जीवोमां, बे इन्द्रिय, त्रण इन्द्रिय अने चार इन्द्रिय जीवोमां तथा पशुनी पर्यायमां उत्पन्न थतो नथी.

वळी अव्रती सम्यग्द्रष्टिने एकतालीस कर्मप्रकृतिओनो नवीन बंध थतो नथी. (जुओ, गोम्मटसारकर्मकाण्ड गाथा ९५९६)

विशेष

आ गाथामां सम्यग्दर्शन साथे ‘शुद्ध’ विशेषण छे अने तेनो अर्थ टीकाकारे ‘निर्मळ’ कर्यो छे. तेथी ते श्रद्धा गुणनो शुद्ध पर्याय छे.

अहीं शुद्ध निश्चय नयनो विषय शुद्ध पर्याय छे. सम्यग्दर्शन शुद्ध कहो, निर्मळ कहो, पवित्र कहो के निश्चय सम्यग्दर्शन कहोते एक ज छे.

तेथी सिद्ध थाय छे के चोथा गुणस्थानमां अव्रती होवा छतां तेने निश्चय सम्यग्दर्शन होय छे.

एवा निश्चय सम्यग्दर्शन साथे चोथा गुणस्थानमां साचा देवशास्त्रगुरुनी व्यवहार श्रद्धा होय छे, परंतु ते श्रद्धागुणनो पर्याय नथी; पण ते चारित्रगुणनो शुभ उपयोग रूप पर्याय छे. (जुओ, श्री प्रवचनसार गाथा १५७ अने तेनी टीका). १.जाणे जिनोने जेह, श्रद्धे सिद्धने अणगारने, जे सानुकंप जीवो प्रति, उपयोग छे शुभ तेहने. १५७.