Ratnakarand Shravakachar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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रत्नकरंडक श्रावकाचार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

लब्ध्वा राज्ञामिन्द्राश्चक्रवर्तिनस्तेषां चक्रं चक्ररत्नं किं विशिष्टं ? ‘अवनीन्द्रशिरोऽर्चनीयं’ अवन्यां निजनिजपृथिव्वां इन्द्रा मुकुटबद्धा राजानस्तेषां शिरोभिरर्चनीयं तथा ‘धर्मेन्द्रचक्रं’ लब्ध्वा धर्मस्तस्योत्तमक्षमादिलक्षणस्य चारित्रलक्षणस्य वा इन्द्रा अनुष्ठातारः प्रणेतारो वा तीर्थकरादयस्तेषां चक्रं संघातं धर्मेन्द्राणां वा तीर्थकृतां सूचकं चक्रं धर्मचक्रं कथंभूतं ? ‘अधरीकृतसर्वलोकं’ अधरीकृतो भृत्यतां नीतः सर्वलोकस्त्रिभुवनं येन तत् एतत्सर्वं लब्ध्वा पश्चाच्छिवं चोपैति भव्य इति ।।४१।। अपरिमित (अमाप) होय छे, तथा राजेन्द्रचक्रम्’ राजाओना इन्द्रो ते राजेन्द्रो चक्रवर्तीओ, चक्रवर्तीओना चक्ररत्नने प्राप्त करे छे. अवनींद्रशिरोऽर्चनीयम्’ के जे पोतपोतानी पृथ्वीओना अधिपति मुकुटबद्ध राजाओनां मस्तको द्वारा पूजनीय होय छे, तथा धर्मेन्द्रचक्रम्’ धर्मेन्द्रचक्रनेउत्तम क्षमादिरूप अथवा चारित्ररूप धर्मना इन्द्रोना अनुष्ठाता अथवा प्रणेतातीर्थंकर आदिना समूहने अथवा धर्मेन्द्रोनातीर्थंकरोना सूचक धर्मचक्रने प्राप्त करे छे. अधरीकृतसर्वलोकम्’ के जेणे सर्व लोकने (त्रण भुवनने) दासरूप बनाव्या छे (पोताना महिमा आगळ त्रण भुवनने जेणे तुच्छ (हलका) करी दीधा छे नीचे पाडी दीधा छे)ए बधुं प्राप्त करीने पछी सम्यग्द्रष्टि जीव मोक्ष पामे छे.

भावार्थ :आ अंतिम श्लोकमां आचार्य श्लोक ३६ थी ४१ सुधीनो उपसंहार करतां कहे छे केसम्यक्त्वना प्रभावे सम्यग्द्रष्टि जीव उत्तम सांसारिक सुख हेयबुद्धिए भोगवीअर्थात् उत्तम मनुष्यपणुं, इन्द्रनी अपरिमित विभूति, बत्रीस हजार मुकुटबद्ध राजाओ द्वारा पूजनीय चक्रवर्तीपद अने त्रैलोक्य पूज्य तीर्थंकरपद प्राप्त करीने अंते मोक्ष पामे छे.

सम्यक्त्व आत्मानो शुद्ध परिणाम छे, तेनाथी संवरनिर्जरा पूर्वक मोक्षनी प्राप्ति थाय छे. अहीं जे सम्यक्त्वनुं फळ लौकिक सुख बताव्युं छे ते उपचरित कथन छे; वास्तवमां ते सम्यक्त्वनुं फळ नथी पण भूमिकानुसार वर्तता तेना सहचररूप प्रशस्त शुभ रागनुं ते फळ छे, एम समजवुं.

विशेष

सम्यग्द्रष्टिने दर्शनमोहनो अभाव होवाथी तेमने सत्यार्थ श्रद्धान, सत्यार्थ ज्ञान प्रगट होय छे अने मिथ्यात्व साथे अनंतानुबंधी कषायनो पण अभाव होवाथी तेने स्वरूपाचरणचारित्र पण अंशे होय छे. १. तत्सर्वं लब्ध्वा पश्चाच्च शिवमुपैति भव्य इति घ०