Ratnakarand Shravakachar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

रत्नकरंडक श्रावकाचार
[ ११७
इति प्रभाचन्द्रविरचितायां समन्तभद्रस्वामिविरचितोपासकाध्ययनटीकायां
प्रथमः परिच्छेदः ।।।।

जोके अप्रत्याख्यानावरणना उदयने लीधे तेने देशचारित्र अने प्रत्याख्यानावरणना उदयने लीधे सकलचारित्र प्रगट्युं नथी, तोपण तेने देहादिक परद्रव्य तथा रागद्वेषादि कर्मजनित परभावमां एवुं द्रढ भेदज्ञान थयुं छे के ते पोताना ज्ञान-दर्शनरूप ज्ञान- स्वभावमां ज आत्मबुद्धि राखे छे अने पर्यायमां आत्मबुद्धि स्वप्नमां पण राखतो नथी.

सम्यग्द्रष्टि चिंतवन करे छे के‘भगवान अने परमागमनुं शरण ग्रही, अंतर्मुख थई, ज्ञानद्रष्टिथी अवलोकन कर. स्पर्श, रस, गंध, वर्णादिए तारुं स्वरूप नथी, ते पुद्गलनुं स्वरूप छे. क्रोधादि कषायभाव कर्मजनित विकार छे, ते तारा स्वरूपथी भिन्न छे. देव, मनुष्यादिक पर्याय तथा मनुष्यादिक चार गति आत्मानुं स्वरूप नथी, ते कर्मजनित छे, विनाशिक छे.’

वळी ते चिंतवे छे के‘हुं गोरो के श्याम नथी, राजा के रंक नथी, बळवान के निर्बळ नथी, स्वामी के सेवक नथी, रूपवान के कुरूप नथी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य नथी, स्त्री के पुरुष नथी, हुं देह, इन्द्रियो के मन नथी; कारण के ए सर्वे कर्मना उदयजनित पुद्गलना विकार छे. ए रूप आत्मानुं नथी, मारुं स्वरूप तो ज्ञाताद्रष्टा छे वगेरे.’

सम्यग्द्रष्टिने आवुं भेदज्ञान होवाथी तेने परमां आत्मबुद्धि, पर्यायबुद्धि, निमित्तबुद्धि, व्यवहारबुद्धि अने कर्ताबुद्धि छूटी जाय छे, तेथी परभावोथी विमुख थई ते स्वसन्मुख थाय छे अने सत्य श्रद्धाज्ञानना बळथी या ज्ञानवैराग्य शक्तिना प्रभावथी ते आत्मस्वरूपमां स्थिर थवानो निरंतर अभ्यास करे छे अने निर्विकारअतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव करे छे.

आवो अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव करवो ते पण सम्यक्त्वनो ज महिमा छे, माटे मोक्षार्थीए प्रथम तेने ज धारण करवुं जोईए. आत्मार्थीने सांसारिक सुख तो धान्य साथे घासनी जेम सहज प्राप्य छे. ४१.

ए प्रमाणे श्री समन्तभद्र स्वामी विरचित
उपासकाध्ययननी प्रभाचंद्र विरचित टीकामां
पहेलो परिच्छेद पूर्ण थयो. १.