Ratnakarand Shravakachar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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रत्नकरंडक श्रावकाचार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

अतस्तदेवात्र धर्मत्वेनाभिप्रेतं तस्यैव मुख्यतो मूलकारणभूततया स्वर्गापवर्गसाधन- सामर्थ्यसंभवात् ।।।।

सर्व तत्त्वोनुं प्रकाशन करवामां, स्याद्वाद (श्रुतज्ञान) अने केवळज्ञानमां परोक्ष अने प्रत्यक्षनी अपेक्षाए ज भेद छे, तेनाथी बीजुं (ज्ञान) अवस्तुरूप छे. तेथी ते ज (भावश्रुतरूप सम्यग्ज्ञान ज) धर्म छेएवो अभिप्राय छे; कारण के मुख्यपणे मूळ कारण होवाथी तेनामां स्वर्ग अने मोक्षना साधननुं सामर्थ्य छे.

भावार्थ :जे वस्तुना स्वरूपने, न्यूनता, अधिकता, विपरीतता अने संदेह रहित जेम छे तेम जाणे छे, तेने गणधरो या श्रुतकेवलीओ ‘सम्यग्ज्ञान’ कहे छे; अर्थात् जे वस्तुस्वरूपने संशय (संदेह), विपर्यय अने अनध्यवसाय रहित जेम छे तेम जाणे छे तेने सम्यग्ज्ञान कहे छे. आ प्रमाणज्ञाननुं लक्षण छे. नित्यअनित्यरूप, सामान्य विशेषरूप एवुं वस्तुस्वरूप जेम छे तेम जे ज्ञान जाणे तेने ज सत्यार्थज्ञानप्रमाणज्ञान सम्यग्ज्ञान कहे छे.

विशेष

आ श्लोकनी टीकामां सम्यग्ज्ञानने (१) भावश्रुतरूप ज्ञान, (२) यथाभूत अने (३) जीवादि समस्त पदार्थोना स्वरूपने केवळज्ञानवत् संपूर्णपणे प्रकाशन करवाना सामर्थ्यवाळुं कह्युं छे; कारण के

(१) भावश्रुतज्ञान जेनुं स्वरूप छे एवा ज्ञानीने, अभेदरूप भावश्रुतज्ञानस्वरूप शुद्धात्मानुं ज्ञान होवाथी, ते परथी अत्यंत विरक्त होय छे. तेथी ते ज्ञानी, कर्मना उदयना स्वभावने स्वयं ज छोडी दे छे. (श्री समयसार गाथा ३१८नी टीका)

(२) यथाभूतयाथातथ्यं’ जे वस्तुस्वरूप छे तेम जाणे ते ज्ञान भावश्रुतरूप छे.

(३) केवळज्ञानवत्चोथापांचमा गुणस्थानवर्ती जीवो पण सम्यग्ज्ञानी होवाथी, १.संशय (संदेह)‘विरुद्धानेककोटिस्पर्शिज्ञानं संशयः’‘आ प्रमाणे छे के आ प्रमाणे छे’एवुं जे

परस्पर विरुद्धतापूर्वक बे प्रकाररूप ज्ञान तेने संशय कहे छे.

विपर्यय (विभ्रम) ‘विपरीतैककोटी निश्चयो विपर्ययः’वस्तुस्वरूपथी विरुद्धतापूर्वक ‘आम ज छे’

एवुं एकरूप ज्ञान ते विपर्यय छे.

अनधयवसाय (विमोह)‘किमित्यालोचनमात्रमनध्यवसायः’‘कंईक छे’ एवो निर्धाररहित विचार

तेनुं नाम अनध्यवसाय छे.