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अतस्तदेवात्र धर्मत्वेनाभिप्रेतं तस्यैव मुख्यतो मूलकारणभूततया स्वर्गापवर्गसाधन- सामर्थ्यसंभवात् ।।१।।
सर्व तत्त्वोनुं प्रकाशन करवामां, स्याद्वाद (श्रुतज्ञान) अने केवळज्ञानमां परोक्ष अने प्रत्यक्षनी अपेक्षाए ज भेद छे, तेनाथी बीजुं (ज्ञान) अवस्तुरूप छे. तेथी ते ज (भावश्रुतरूप सम्यग्ज्ञान ज) धर्म छे – एवो अभिप्राय छे; कारण के मुख्यपणे मूळ कारण होवाथी तेनामां स्वर्ग अने मोक्षना साधननुं सामर्थ्य छे.
भावार्थ : — जे वस्तुना स्वरूपने, न्यूनता, अधिकता, विपरीतता अने संदेह रहित जेम छे तेम जाणे छे, तेने गणधरो या श्रुतकेवलीओ ‘सम्यग्ज्ञान’ कहे छे; अर्थात् जे वस्तुस्वरूपने संशय (संदेह), विपर्यय अने अनध्यवसाय रहित जेम छे तेम जाणे छे तेने सम्यग्ज्ञान कहे छे. आ प्रमाण – ज्ञाननुं लक्षण छे. नित्य – अनित्यरूप, सामान्य – विशेषरूप एवुं वस्तुस्वरूप जेम छे तेम जे ज्ञान जाणे तेने ज सत्यार्थज्ञान – प्रमाणज्ञान – सम्यग्ज्ञान कहे छे.१
आ श्लोकनी टीकामां सम्यग्ज्ञानने (१) भावश्रुतरूप ज्ञान, (२) यथाभूत अने (३) जीवादि समस्त पदार्थोना स्वरूपने केवळज्ञानवत् संपूर्णपणे प्रकाशन करवाना सामर्थ्यवाळुं कह्युं छे; कारण के —
(१) भावश्रुतज्ञान जेनुं स्वरूप छे एवा ज्ञानीने, अभेदरूप भावश्रुतज्ञानस्वरूप शुद्धात्मानुं ज्ञान होवाथी, ते परथी अत्यंत विरक्त होय छे. तेथी ते ज्ञानी, कर्मना उदयना स्वभावने स्वयं ज छोडी दे छे. (श्री समयसार गाथा ३१८नी टीका)
(२) यथाभूत – ‘याथातथ्यं’ जे वस्तुस्वरूप छे तेम जाणे ते ज्ञान भावश्रुतरूप छे.
(३) केवळज्ञानवत् — चोथा – पांचमा गुणस्थानवर्ती जीवो पण सम्यग्ज्ञानी होवाथी, १.संशय (संदेह) – ‘विरुद्धानेककोटिस्पर्शिज्ञानं संशयः’ — ‘आ प्रमाणे छे के आ प्रमाणे छे’ – एवुं जे
परस्पर विरुद्धतापूर्वक बे प्रकाररूप ज्ञान तेने संशय कहे छे.
एवुं एकरूप ज्ञान ते विपर्यय छे.
तेनुं नाम अनध्यवसाय छे.