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साधे छे, तेथी तेने सम्यग्ज्ञान कहेवातुं नथी. ए प्रमाणे मिथ्याद्रष्टिना ज्ञानने मिथ्याज्ञान कहीए छीए.
मिथ्याज्ञाननुं कारण छे. जेम विषना संयोगथी भोजनने पण विषरूप कहेवामां आवे छे, तेम मिथ्यात्वना संबंधथी ज्ञान पण मिथ्याज्ञान नाम पामे छे.
ए ज प्रमाणे जीवने प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्व तथा अप्रयोजनभूत अन्य पदार्थोने यथार्थ जाणवानी शक्ति होय, पण त्यां जेने मिथ्यात्वनो उदय होय ते तो अप्रयोजनभूत होय तेने ज वेदे छे – जाणे छे, पण प्रयोजनभूतने जाणतो नथी. जो ते प्रयोजनभूतने जाणे तो सम्यग्ज्ञान बनी जाय, पण मिथ्यात्वनो उदय होवाथी तेम बनी शकतुं नथी. माटे त्यां प्रयोजनभूत – अप्रयोजनभूत पदार्थो जाणवामां ज्ञानावरणनुं निमित्त नथी, परंतु मिथ्यात्वनो उदय – अनुदय ज कारणभूत छे.’’१ ४२.
तेना (सम्यग्ज्ञानना) विषय – भेदथी प्रथमानुयोगरूप भेदनुं प्ररूपण करतां कहे छे —
अन्वयार्थ : — [समीचीनः बोधः ] सम्यग्ज्ञान छे ते [अर्थाख्यानम् ] जेमां परमार्थरूप विषयनुं व्याख्यान छे एवा, [चरितं ] जेमां कोई एक महापुरुषना चरित्रनुं व्याख्यान आवे छे एवा, [पुराणम् अपि ] जेमां त्रेसठ शलाकापुरुषोनी कथा आवे छे एवा, [पुण्यम् ] जेने सांभळवाथी पुण्य ऊपजे छे एवा अने [बोधिसमाधिनिधानम् ] जे बोधि अने समाधि ए बंने विषयोनुं निधान छे एवा (अर्थात् तेने सांभळवाथी बोधि अने समाधि प्राप्त थाय छे एवा) [प्रथमानुयोगम् ] प्रथमानुयोगने [बोधति ] जाणे छे. १. जुओ, मोक्षमार्ग प्रकाशक, गुजराती आवृत्ति, अध्याय ४, पृष्ठ ८८ थी ९०.