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अथ तन्नमस्कारकरणानन्तरं किं १कर्तुं लग्नो भवानित्याह — अनंत चतुष्टयरूप अंतरंग लक्ष्मीथी विभूषित छे, जेमणे पोताना आत्माना अथवा (उपदेश द्वारा) भव्य जीवोना आत्मानां ज्ञानावरणादि पापमळनो नाश कर्यो छे अने जेमना केवळज्ञानरूप दर्पणमां अलोकाकाश सहित छ द्रव्योना समुदायरूप समस्त लोक पोतानी भूत, भविष्य अने वर्तमाननी समस्त अनंतानंत पर्यायो सहित युगपत् प्रतिबिंबित थाय छे, तेवा अंतिम तीर्थंकर श्री वर्धमान स्वामीने, ग्रंथकर्ता श्री समन्तभद्राचार्ये अहीं नमस्कार कर्या छे.
गाथाना पहेला अर्धभागमां सर्वज्ञतानो उपाय बताव्यो छे. तेनो अर्थ ए छे, के भगवान ज्यारे पोताना आत्मामां लीन थया; त्यारे भावकर्मनो नाश थयो अने निमित्तरूप जे ज्ञानावरणादि पापकर्म हतां तेनो अभाव थयो, तेथी बंने प्रकारनां कर्मोनो — भावकर्मो अने द्रव्यकर्मोनो — अभाव थतां भगवानने सर्वज्ञपणुं प्रगट थयुं; एम समजवुं.
आ चरणानुयोगनुं श्रावकाचार शास्त्र छे. तेनुं प्रयोजन मोक्षमार्ग प्रकाशक अध्याय ८मां नीचे मुजब जणाव्युं छे —
‘‘जे जीव तत्त्वज्ञानी थई आ चरणानुयोगने अभ्यासे छे तेने ए बधां आचरण पोताना वीतरागभावने अनुरूप भासे छे.’’
‘‘एकदेश वा सर्वदेश वीतरागता थतां एवी श्रावक - मुनि दशा थाय छे, कारण के ए एकदेश वा सर्वदेश वीतरागता अने आ श्रावक - मुनि दशाने निमित्त - नैमित्तिकपणुं होय छे, एम जाणी श्रावक - मुनिधर्मना भेदोने ओळखी जेवो पोताने वीतराग भाव थयो होय तेवो पोताने योग्य धर्म साधे छे. तेमां पण जेटला अंशे वीतरागता होय छे तेने ते कार्यकारी जाणे छे, जेटला अंशे राग रहे छे तेने हेय जाणे छे तथा संपूर्ण वीतरागताने परम धर्म माने छे. ए प्रमाणे चरणानुयोगनुं प्रयोजन छे.’’
उपरोक्त सिद्धांत मुजब आ शास्त्रमां निमित्त - नैमित्तिक संबंधनां कथनो छे, एम जाणी ते मुजब नयविवक्षा मुजब सर्वत्र यथार्थ भाव समजवो. भगवाननी स्तुति करवानी होय त्यारे तेमनुं निमित्तपणुं ज बताववामां आवे छे.
(जुओ, श्री प्रवचनसार गाथा १ थी ५ तथा टीका) १. हवे तेओ नमस्कार कर्या पछी तेओ शुं करवा लागे छे? ते कहे छे
१. करोतिं घ० ।