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जे नरक - तिर्यंचादिक गतिमां परिभ्रमणरूप संसारनां दुःखोथी जीवोने छोडावीने उत्तम अर्थात् अविनाशी अतीन्द्रिय मोक्षसुखमां धारण करे ते धर्म. आ सत्य (निश्चय) धर्मनुं लक्षण छे.
धर्म तो आत्मानो स्वभाव छे. वस्तुस्वभावो धर्मो। ते आत्मानी अंदर छे. तीर्थ, मंदिर, मूर्ति आदि तथा देव - गुरु आदि परपदार्थोमां नथी.१ माटे स्वाश्रय द्वारा परनुं अवलंबन छोडी पोताना ज्ञाता - द्रष्टारूप स्वभावनुं श्रद्धान, अनुभव तथा ज्ञायक स्वभावमां ज प्रवर्तनरूप आचरण करवुं ते ज समीचीन निश्चय धर्म छे.
प्रस्तुत श्लोकमां ‘समीचीनं’ ‘कर्मनिबर्हणम्’ अने ‘धरति उत्तमे सुखे’ — आ शब्दो निश्चयधर्मने ज सूचवे छे. कारण के निश्चयधर्म ज जीवने उत्तम सुखमां धरतो होवाथी समीचीन (सत्यार्थ — अबाधित) होई शके, तेनाथी ज कर्मनो नाश थाय अने तेनाथी ज उत्तम सुखनी प्राप्ति थाय.
व्यवहारधर्म शुभभावरूप छे, ते आस्रव तत्त्व छे; तेनाथी कर्मबंध थाय पण कर्मनो नाश थाय नहि अने तेनाथी स्वर्गादिनुं सुख प्राप्त थाय पण मोक्षनुं सुख (उत्तम सुख) प्राप्त थाय नहि — एम टीकाकारनो भाव समजवो.
आ श्रावकाचारनुं शास्त्र छे. श्रावकनुं गुणस्थान पांचमुं छे. मुनिपद धारण कर्या विना अने केवळज्ञान प्राप्त कर्या विना कोई मोक्ष पामे नहि. भगवानना काळमां पण चरमशरीरी जीव होय ते ज मोक्ष पामे छे.
श्रावकने तो सम्यक्त्वपूर्वक शुभोपयोग होय छे, तेथी तेवा शुभरागना प्रशस्त फळभूत स्वर्गने ज ते प्रथम पामे, पछी मनुष्य थई अल्प भवमां पोतानो पुरुषार्थ वधारी मोक्ष पामे छे, तेथी टीकाकार आचार्ये स्वर्गनुं अने मोक्षनुं सुख धर्मथी प्राप्त थाय छे, तेम कह्युं छे. २.
हवे एवा धर्मस्वरूपे कया भावोने स्वीकारवामां आवे छे ते कहे छेः — १. जुओ योगसार गाथा ४२ थी ४५.