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संसारनुं कारण छे.
३. निश्चय साथे व्यवहार धार्म : — ज्यां अंशे आत्मिक शुद्धि प्रगटी होय छे तेनाथी संवर - निर्जरा थाय छे अने अंशे अशुद्धि होय छे तेनाथी आस्रव अने बंध थाय छे. चोथा गुणस्थानथी अर्थात् अविरत सम्यग्द्रष्टिथी आ धर्मनी शरूआत थाय छे. शास्त्रोमां केटलाक ठेकाणे आ धर्मने ज मोक्षनुं परंपरा कारण कहेवामां आव्युं छे. एकला व्यवहार धर्मने नहि.
धर्मना अनेक अर्थो थाय छे, माटे पूर्वापर जेवो संबंध होय तेवो तेनो अर्थ विचारवो. कह्युं छे के —
‘‘ज्यां ज्यां जे जे योग्य छे त्यां समजवुं तेह’’ ३. तेमां सम्यग्दर्शनना स्वरूपनुं व्याख्यान करतां कहे छे
अन्वयार्थ : — [परमार्थानाम् ] परमार्थभूत (साचा) [आप्तागमतपोभृताम् ] देव - शास्त्र - तपस्वीनुं [त्रिमूढापोढम् ] त्रण मूढता रहित [अष्टाङ्गम् ] आठ अंग सहित अने [अस्मयम् ] आठ मद रहित [श्रद्धानं ] श्रद्धान करवुं ते [सम्यग्दर्शनम् ] सम्यग्दर्शन छे.
टीका : — ‘आप्तागमतपोभृतां सम्यग्दर्शनम्’ आप्तआगम - तपस्वीनुं जे स्वरूप