Ratnakarand Shravakachar-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 4 samyagdarshannu lakshaN.

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१० ]

रत्नकरंडक श्रावकाचार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
तत्र सम्यग्दर्शनस्वरूपं व्याख्यातुमाह
श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम्
त्रिमूढापोढमष्टाङ्गं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ।।।।
सम्यग्दर्शनं भवति किं ? ‘श्रद्धानं’ रुचिः केषां ? ‘आप्तागमतपोभृतां’
शास्त्रोमां नीचे प्रमाणे ‘धर्म’नो अर्थ करेलो जोवामां आवे छे
१. निश्चय धार्म :जे स्वाश्रित छे अने साक्षात् मोक्षनुं कारण छे.
२. व्यवहार धार्म :रूढिथी कहेवातो शुभरागरूप धर्म ते पराश्रित छे अने

संसारनुं कारण छे.

३. निश्चय साथे व्यवहार धार्म :ज्यां अंशे आत्मिक शुद्धि प्रगटी होय छे तेनाथी संवर - निर्जरा थाय छे अने अंशे अशुद्धि होय छे तेनाथी आस्रव अने बंध थाय छे. चोथा गुणस्थानथी अर्थात् अविरत सम्यग्द्रष्टिथी आ धर्मनी शरूआत थाय छे. शास्त्रोमां केटलाक ठेकाणे आ धर्मने ज मोक्षनुं परंपरा कारण कहेवामां आव्युं छे. एकला व्यवहार धर्मने नहि.

धर्मना अनेक अर्थो थाय छे, माटे पूर्वापर जेवो संबंध होय तेवो तेनो अर्थ विचारवो. कह्युं छे के

‘‘ज्यां ज्यां जे जे योग्य छे त्यां समजवुं तेह’’ ३. तेमां सम्यग्दर्शनना स्वरूपनुं व्याख्यान करतां कहे छे

(सम्यग्दर्शननुं लक्षण)
श्लोक ४

अन्वयार्थ :[परमार्थानाम् ] परमार्थभूत (साचा) [आप्तागमतपोभृताम् ] देव - शास्त्र - तपस्वीनुं [त्रिमूढापोढम् ] त्रण मूढता रहित [अष्टाङ्गम् ] आठ अंग सहित अने [अस्मयम् ] आठ मद रहित [श्रद्धानं ] श्रद्धान करवुं ते [सम्यग्दर्शनम् ] सम्यग्दर्शन छे.

टीका :आप्तागमतपोभृतां सम्यग्दर्शनम्’ आप्तआगम - तपस्वीनुं जे स्वरूप