कहानजैनशास्त्रमाळा ]
रेणाखिलार्थानां यथावत्स्वरूपोपदेशकः । एतैः शब्दैरुक्तस्वरूप आप्त ‘उपलाल्यते’ प्रतिपाद्यते ।।७।।
उपदेशक होवाने कारणे ते शास्ता छे. — आ शब्दोथी जेनुं स्वरूप कहेवामां आव्युं छे ते आप्त ‘उपलाल्यते’ कहेवाय छे.
भावार्थ : — अहीं आचार्ये आप्तनां जुदां जुदां नाम दर्शावी तेमनुं विशेष स्वरूप दर्शाव्युं छे.
तेओ इन्द्रादिक द्वारा वंदनीय परम पदमां स्थित होवाथी ‘परमेष्ठी’, निरावरण केवळज्ञान सहित होवाथी ‘परंज्योति’, राग - द्वेषादि भावकर्म रहित होवाथी ‘विरागी’, घातियांकर्मरूप द्रव्यकर्मथी रहित होवाथी ‘विमल’, सर्व हेय - उपादेयनुं ज्ञान होवाथी ‘कृती’, सर्व पदार्थोने युगपद् एक समयमां प्रत्यक्ष जाणनार होवाथी ‘सर्वज्ञ’, सत्यार्थ देवना प्रवाहनी अपेक्षाए आदि, मध्य अने अंत रहित होवाथी ‘अनादिमध्यान्त’, सर्व जीवोना हितकारक होवाथी ‘सार्व’ अने दिव्यध्वनि द्वारा सर्व पदार्थोनो यथावत् उपदेश आपनार होवाथी ‘शास्ता’ छे. आ आप्तनां विशेषणवाचक नामो छे.
जे आप्तनां आ विशेषणो जाणी पोताना आत्मानी सन्मुख थाय छे ते खरेखर पोताना आत्माने जाणे छे, कारण के बंनेमां निश्चयथी तफावत नथी. श्री प्रवचनसार गाथा ८०मां कह्युं छे के —
‘‘जे अर्हंतने द्रव्यपणे, गुणपणे अने पर्यायपणे जाणे छे ते (पोताना) आत्माने जाणे छे. अने तेनो मोह (दर्शन मोह) निराश्रयपणाने लीधे अवश्य लय पामे छे.’’
आ श्लोक आ हेतुथी कहेवामां आवेल छे एम समजवुं. ७. सम्यग्दर्शनना विषयभूत जे आप्तस्वरूप ते कहीने हवे तेना विषयभूत जे आगमनुं स्वरूप ते कहेवा माटे कहे छे —