Ratnakarand Shravakachar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

रत्नकरंडक श्रावकाचार
[ २७

ध्वनन् किमात्मार्थं किंचिदपेक्षते नैवापेक्षते अयमर्थःयथा मुरजः परोपकारार्थमेव विचित्रान् शब्दान् करोति तथा सर्वज्ञः शास्त्रप्रणयनमिति ।।।। विचित्र शब्दो करे छे, तेम सर्वज्ञ शास्त्रनो उपदेश (दिव्यध्वनि द्वारा) करे छे.

भावार्थ :जेम मृदंग वगाडनारना हाथना स्पर्शथी पोतानी इच्छा विना वागे छे अने तेना मधुर अवाजथी श्रोताओनां मन प्रसन्न थाय छे, परंतु तेना बदलामां श्रोताओ तरफथी ते कीर्ति, प्रशंसा, पूजा, लाभ, प्रेमादिनी इच्छा करतुं नथी, तेम हितोपदेशी वीतराग देवनो पण भव्य जीवोना पुण्यना निमित्ते, इच्छा विना हितनो उपदेश होय छे. तोपण तेओ पोताना माटे लाभादिनी इच्छा करता नथी, तेम ज श्रोताओ उपर राग करता नथी.

जेम मेघ पोताना प्रयोजन विना - इच्छा विना ज लोकोना पुण्योदयना निमित्ते, पुण्यशाळी जीवोना देशमां गमन, गर्जना करीने पुष्कळ वरसाद वरसावे छे, तेम भगवान आप्तनो, लोकोनां पुण्य निमित्ते पुण्यवान जीवोना देशमां, विना इच्छाए विहार थाय छे अने त्यां धर्मरूप अमृतनी वर्षा थाय छे.

विशेष

१. मृदंगना शब्दोए पुद्गलनो पर्याय छे. ते तेना स्वतंत्र परिणमनथी थाय छे, तेमां शिल्पीनी इच्छा अने हाथ तो फक्त निमित्त मात्र छे. तेथी ते बंनेनी वच्चे निमित्त - नैमित्तिक संबंध समजवो, नहि के कर्ता - कर्म संबंध. तेवी ज रीते दिव्यध्वनि द्वारा भगवाननां उपदेश - वचनो थाय छे ते पण भाषावर्गणा पुद्गलनुं स्वतंत्र परिणमन छे, तेमां भगवाननी इच्छा पण निमित्त नथी; कारण के तेओ वीतराग छे. फक्त तेमनी उपस्थिति - हयाती ज निमित्त मात्र छे. माटे ते बंनेमां (दिव्यध्वनिमां अने भगवाननी उपस्थितिमां) मात्र निमित्त - नैमित्तिक संबंध मानवाने बदले तेमां कर्ता - कर्म संबंध मानवो ते भ्रम छे.

२. पं. दोलतरामजी कृत दर्शनस्तुतिमां कह्युं छे के

‘.......भवि भागन वच जोगे वशाय,
तुम धुनि है सुनि विभ्रम नशाय........३.

हे भगवान, भव्य जीवोना भाग्यना निमित्ते आपनी दिव्यध्वनि छे, जे सांभळीने विभ्रमनो नाश थाय छे.