कहानजैनशास्त्रमाळा ]
विषयेषु स्रग्वनितादिष्वाशा आकांक्षा तस्या वशमधीनता । तदतीतो विषयाकांक्षारहितः । ‘निरारम्भः’ परित्यक्तकृष्यादिव्यापारः । ‘अपरिग्रहो’ बाह्याभ्यन्तर- परिग्रहरहितः । ‘ज्ञानध्यानतपोरत्नः’ ज्ञानध्यानतपांस्येव रत्नानि यस्य एतद्गुणविशिष्टो यः स तपस्वी गुरुः ‘प्रशस्यते’ श्लाघ्यते ।।१०।।
टीका : — ‘विषयाशावशातीतः’ स्पर्शनादि इन्द्रियोना विषयभूत माळा, स्त्री आदि विषयोनी आकांक्षा (आशा)ना वशथी (अधीनताथी) जे रहित छे अर्थात् विषयोनी आकांक्षाथी जे रहित छे, ‘निरारम्भः’ जेणे खेती आदि व्यापारनो त्याग कर्यो छे, अर्थात् खेती आदि व्यापारथी जे रहित छे, ‘अपरिग्रहः’ जे बाह्य अने आभ्यंतर परिग्रहथी रहित छे, ‘ज्ञानध्यानतपोरत्नः’ ज्ञान, ध्यान अने तपरूपी रत्नो जेने छे एवा अर्थात् ज्ञान, ध्यान अने तपरूपी गुणोथी जे विशिष्ट छे एवा तपस्वी गुरु ‘प्रशस्यते’ प्रशंसनीय छे.
भावार्थ : — जे संसारना कारणभूत पांच इन्द्रियोना विषयोनी आशानी पराधीनता अने व्यापारादि अने बाह्याभ्यंतर१ परिग्रहो तेनाथी रहित छे, अने आत्मकल्याणना कारणभूत जे ज्ञान, ध्यान अने तप छे तेमां लवलीन छे अर्थात् ज्ञान, ध्यान अने तप ए त्रणे रत्नोथी रहित छे ते सत्यार्थ गुरु कहेवाय छे. तेवा गुरु ज प्रशंसापात्र छे.
आ श्लोकमां आचार्ये तेना पूर्वार्धमां जेनो अभाव छे तेनुं कथन कर्युं छे, अर्थात् साचा गुरुमां पांच इन्द्रियोना विषयनी इच्छाओ, आरंभ अने परिग्रह — ए त्रणनो अभाव दर्शाव्यो छे अने तेना उत्तरार्धमां जेनो सद्भाव छे तेनुं कथन कर्युं छे, अर्थात् साचा गुरुमां ज्ञान, ध्यान अने तप — ए त्रणनो सद्भाव दर्शाव्यो छे.
जे इच्छाओ, आरंभ अने परिग्रहनो अभाव करी, ज्ञान, ध्यान अने तपमां लवलीन रहे छे ते ज ‘सत्यार्थ गुरु’ना नामने पात्र छे.
अज्ञानी जीवो गुरुना जे गुणोने विचारे छे तेमां कोई जीवाश्रित छे तथा कोई १.अंतरंग परिग्रहः मिथ्यात्व, त्रण वेद — स्त्री – पुरुष – नपुंसक भाव, रति, अरति, हास्य, शोक,