कहानजैनशास्त्रमाळा ]
तो वस्तुना यथार्थ स्वरूपनुं वा हित - अहितनुं श्रद्धान करी मोक्षमार्गमां प्रवर्ते......ज्यां देव - गुरु - धर्मना श्रद्धानरूप लक्षण कह्युं छे त्यां बाह्य साधननी प्रधानता कही छे, कारण के अर्हंतदेवादिकनुं श्रद्धान साचा तत्त्वार्थश्रद्धाननुं कारण छे.....ए बाह्य कारणनी प्रधानताथी कुदेवादिकनुं श्रद्धान छोडावी, सुदेवादिकनुं श्रद्धान कराववा अर्थे देव - गुरु - धर्मना श्रद्धानने मुख्य लक्षण कह्युं छे. ए प्रमाणे जुदां जुदां प्रयोजननी मुख्यता वडे जुदां जुदां लक्षणो कह्यां छे.’’ ४.
सम्यग्द्रष्टि निःशंक होय छे अर्थात् सात भयथी रहित होय छे, कारण के ते आत्मतत्त्वने स्वानुभवगोचर करी आत्माने आत्मापणे अने द्रव्यकर्म - नोकर्मने पौद्गलिक परभावरूप तथा भावकर्मने आस्रवरूप जाणे छे. परद्रव्योथी आ जीवने लाभ - हानि के सुख - दुःख मानतो नथी. वळी ते ए वातमां निःशंक होय छे के कोई कोईने मारतुं नथी के जीवाडतुं नथी अने कोई कोईने सुखी करतुं नथी के दुःखी करतुं नथी. अर्थात् एक द्रव्य बीजा द्रव्यनुं कांई करतुं नथी; वळी ते द्रढपणे माने छे के शरीर पुत्रादि संयोगी पदार्थोनो अवश्य वियोग थाय छे. कोई पर पदार्थ इष्ट के अनिष्ट नथी तेम ज ते सुख
दुःखनुं कारण पण नथी. मात्र भावकर्मरूप आस्रवभाव छे ते दुःख छे. तेनो अभाव करवानो प्रयत्न तेने निरंतर चालु होय छे. एक समयमां परिपूर्ण नित्य ज्ञायकतत्त्वना द्रढ आश्रयरूप आवी निःशंक मान्यता वर्तती होय तेने १ - आलोकनो, २ - परलोकनो, ३ - मरणनो, ४ - वेदनानो, ५ - अरक्षानो, ६ - अगुप्तिनो अने ७ - अकस्मातनो — एम सात प्रकारनो भय केम होई शके? - न ज होय.१
(१) ‘‘आ भवमां जीवनपर्यंत अनुकूळ सामग्री रहेशे के नहि? एवी चिंता रहे ते आ लोकनो भय छे. ‘परभवमां मारुं शुं थशे?’ एवी चिंता रहे ते परलोकनो भय छे. ज्ञानी जाणे छे के – आ चैतन्य ज मारो एक, नित्य लोक छे के जे सर्व काळे प्रगट छे. आ सिवायनो बीजो कोई लोक मारो नथी. आ मारो चैतन्यस्वरूप लोक तो कोईथी बगाड्यो बगडतो नथी. आवुं जाणता ज्ञानीने आ लोकनो के परलोकनो भय क्यांथी होय? कदी न होय. ते तो पोताने स्वाभाविक ज्ञानरूप ज अनुभवे छे. १.सम्यक्त्ववंत जीवो निःशंकित, तेथी छे निर्भय अने
छे सप्तभयप्रविमुक्त जेथी, तेथी ते निःशंक छे. (श्री समयसार गाथा २२८)