Ratnakarand Shravakachar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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रत्नकरंडक श्रावकाचार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

‘‘सुख - दुःखने भोगववुं ते वेदना छे. ज्ञानीने पोताना एक ज्ञानमात्र स्वरूपनो ज भोगवटो छे. ते पुद्गलथी थयेली वेदनाने वेदना ज जाणतो नथी. माटे ज्ञानीने वेदना भय नथी. ते तो सदा निर्भय वर्ततो थको ज्ञानने अनुभवे छे.

‘‘सत्तास्वरूप वस्तुनो कदी नाश थतो नथी. ज्ञान (आत्मा) पण पोते सत्तास्वरूप वस्तु छे, तेथी ते एवुं नथी के जेनी बीजाओ वडे रक्षा करवामां आवे तो रहे, नहि तो नष्ट थई जाय. ज्ञानी आम जाणतो होवाथी तेने अरक्षानो भय नथी.

‘‘गुप्ति एटले जेमां कोई चोर वगेरे प्रवेश न करी शके एवो किल्लो, भोंयरुं वगेरे; तेमां प्राणी निर्भयपणे वसी शके छे. एवो गुप्त प्रदेश न होय पण खुल्लो प्रदेश होय, तो तेमां रहेनार प्राणीने अगुप्तपणाने लीधे भय रहे छे. ज्ञानी जाणे छे के वस्तुना निज स्वरूपमां कोई बीजुं प्रवेश करी शकतुं नथी, माटे वस्तुनुं स्वरूप ज वस्तुनी परम गुप्ति अर्थात् अभेद्य किल्लो छे. पुरुषनुं अर्थात् आत्मानुं स्वरूप ज्ञान छे; ते ज्ञानस्वरूपमां रहेलो आत्मा गुप्त छे, कारण के ज्ञानस्वरूपमां बीजुं कोई प्रवेशी शकतुं नथी. आवुं जाणता ज्ञानीने अगुप्तिपणानो भय क्यांथी होय?

‘‘इन्द्रियादि प्राणो नाश पामे तेने लोको मरण कहे छे, परंतु आत्माने परमार्थे इन्द्रियादि प्राण नथी, तेने तो ज्ञान प्राण छे. ज्ञान अविनाशी छेतेनो नाश थतो नथी; तेथी आत्माने मरण नथी. ज्ञानी आम जाणतो होवाथी तेने मरणनो भय नथी.

‘‘कोई अणधार्युं अनिष्ट एकाएक उत्पन्न थशे तो? एवो भय रहे ते आकस्मिक भय छे. ज्ञानी जाणे छे केआत्मानुं ज्ञान पोताथी ज सिद्ध, अनादि, अनंत, अचळ, एक छे. तेमां बीजुं कांई उत्पन्न थई शकतुं नथी; माटे तेमां अणधार्युं कांई पण क्यांथी थाय? अर्थात् अकस्मात् क्यांथी बने? आवुं जाणता ज्ञानीने अकस्मातनो भय क्यांथी होय? न ज होय.’’

वळी ज्ञानी जाणे छे के

‘‘जे जीवने जे देशमां, जे काळमां, जे विधानथी जन्म - मरण उपलक्षणथी दुःख - सुख - रोग - दरिद्रता आदि थवुं सर्वज्ञदेवे जाण्युं छे, ते ए ज प्रमाणे नियमथी थवानुं छे अने ते ज प्रमाणे थवा योग्य छे ते प्रमाणे ते प्राणीने ते ज देशमां, ते ज काळमां, १. समयसार गुजराती आवृत्तिकळश १५५ थी १६०नो भावार्थ. वधु विस्तार माटे जुओ ‘श्री

पंचाध्यायी’ उत्तरार्ध गाथा ५०६ थी ५४६.