Ratnakarand Shravakachar-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 12 nikankshitguNanu lakshaN.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

रत्नकरंडक श्रावकाचार
[ ३७
इदानीं निष्कांक्षितत्वगुणं सम्यग्दर्शने दर्शयन्नाह
कर्मपरवशे सान्ते दुःखैरन्तरितोदये
पापबीजे सुखेऽनास्था श्रद्धानाकाङ्क्षणा स्मृता ।।१२।।

‘अनाकांक्षणा स्मृता’ निष्कांक्षितत्वं निश्चितं कासौ ? ‘श्रद्धा’ कथंभूता ? ‘अनास्था’ न विद्यते आस्था शाश्वतबुद्धिर्यस्यां अथवा न आस्था अनास्था तस्यां तया वा श्रद्धा अनास्थाश्रद्धा सा चाप्यनाकांक्षणेति स्मृता क्व अनास्थाऽरुचिः ? ते ज विधानथी - नियमथी थाय छे. तेने इन्द्र के जिनेन्द्र - तीर्थंकरदेव कोई पण अटकावी शकता नथी.’’

अहीं निःशंकितत्वादिने ‘गुण’ कह्या छे. तेने त्रिकाळी गुण न समजवो, पण पर्यायमां ते प्रकारनी शुद्धतानो लाभ समजवो, तेने ‘अंग - आचार - लक्षण’ वगेरे नामो पण आपवामां आवे छे. ११.

हवे सम्यग्दर्शनना निःकांक्षितगुणने दर्शावीने कहे छे

२. निःकांक्षितगुणनुं लक्षण
श्लोक १२

अन्वयार्थ :[कर्मपरवशे ] जे कर्मोने आधीन छे एवा [सान्ते ] जे नश्वर- अन्त सहित छे एवा, [दुःखैः अन्तरितोदये ] जेना उदयमां (उद्भवमां) आंतरुं पडे छे एवा अने [पापबीजे ] जे पापना बीजरूप छे - कारणरूप छे एवा, [सुखे ] इन्द्रियसंबंधी सुखमां [अनास्था श्रद्धा ] अनास्था सहितनी श्रद्धा (इन्द्रियसुख प्रत्ये उपेक्षापूर्वकनी श्रद्धा) ते, [अनाकांक्षणा ] निःकांक्षित अंग [स्मृता ] कहेवाय छे.

टीका :अनाकांक्षणा स्मृता’ ते नक्की निःकांक्षितपणुं गणवामां आव्युं छे. शुं ते श्रद्धा’ श्रद्धा. केवी (श्रद्धा)? अनास्था’ जेमां आस्था अर्थात् शाश्वत बुद्धि न होवी ते अनास्था, अथवा आस्था नहि ते अनास्था, अनास्थानी अथवा अनास्था सहितनी श्रद्धा ते अनास्था श्रद्धा छे अने ते निःकांक्षित अंग कहेवाय छे. शामां अनास्था अर्थात् १. सा चानाकाङ्कणोति घ० २. स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा ३२१३२२.