Ratnakarand Shravakachar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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३८ ]

रत्नकरंडक श्रावकाचार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

‘सुखे’ वैषयिके कथंभूते ? ‘कर्मपरवशे’ कर्मायत्ते तथा ‘सान्ते’ अन्तेन विनाशेन सह वर्तमाने तथा ‘दुःखैरन्तरितोदये’ दुःखैर्मानसशारीरैरन्तरित उदयः प्रादुर्भावो यस्य तथा ‘पापबीजे’ पापोत्पत्तिकारणे ।।१२।। अरुचि? सुखे’ इन्द्रिय - विषय संबंधी सुखमां. केवा (सुखमां)? कर्मपरवशे’ जे कर्माधीन छे एवा तथा सान्ते’ जे अंत - विनाश सहित छे एवा तथा दुःखैरन्तरितोदये’ जेना उदयमां वच्चे वच्चे मानसिक अने शारीरिक दुःखो आवे छे एवा तथा पापबीजे’ जे पापनी उत्पत्तिनुं कारण छे एवा (सुखमां).

भावार्थ :इन्द्रियजनित सुख (सांसारिक सुख) कर्मने आधीन छे, अंतसहित (नाशवंत) छे, मानसिक अने शारीरिक दुःखोथी (अर्थात् आधि, व्याधि अने उपाधिथी) खलेल पामे छे अने पापनुं मूळ छे, (पापबंधनुं कारण छे). तेवा सुखमां खरेखर (साचुं) सुख छे, एवी आस्थापूर्वक श्रद्धा न करवी ते निःकांक्षित अंग छे.

इन्द्रियजनित सुख कर्मना उदयने आधीन छे, कारण के इन्द्रियसुखनां साधनो शातावेदनीय कर्मना उदय निमित्ते प्राप्त थाय छे. ते विषय - साधनो इन्द्रधनुषवत् वीजळीना चमकारा जेम क्षणभंगुर छे. अशाता वेदनीय कर्मना उदय निमित्ते तेनो अल्पकाळमां अंत आवे छे, माटे ते अंतसहित छे.

इन्द्रियसुख अखंड धाराप्रवाहरूप होतुं नथी. तेथी वारंवार अनेक दुःखना उदय सहित होय छे. कोई वखत रोग थाय, तो कदी स्त्री - पुत्रादिनो वियोग थाय, कदी धननी हानि थाय, तो कदी अनिष्ट वस्तुओनो संयोग थाय. एम ते अनेक दुःखोथी अंतरित होय छे.

वळी इन्द्रियसुखमां एकताबुद्धि होवाथी अज्ञानी जीवो पोतानुं वास्तविक स्वरूप भूली पापारंभमां प्रवृत्ति करे छे, तेथी तेने पापनो बंध थाय छे. आथी इन्द्रियसुख पापनुं बीज छे.

आवा पराधीन, अंतसहित अने दुःखरूप इन्द्रियसुखमां सम्यग्द्रष्टिने वास्तविक सुख भासतुं नथी, तेथी तेने ते साचुं सुख छे एवी आस्थारूप श्रद्धा केवी रीते होय? अने श्रद्धा विना तेनी वांछा (आकांक्षा) पण केम होय? इन्द्रियसुख भोगववाना काळे पण आकुळता ज होय छे, तेथी ते सुख नथी पण दुःख ज छे.