Ratnakarand Shravakachar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

रत्नकरंडक श्रावकाचार
[ ४१

शरीर स्वभावे अपवित्र छे. मळ - मूत्रादि दुर्गंधयुक्त पदार्थोनुं घर छे. वळी ते अशुचि, विनाशिक अने अनेक रोगोनुं रहेठाण छे, पण ते कारणे ते ग्लानि के द्वेष करवा योग्य नथी.

सम्यग्द्रष्टि कोईपण परद्रव्योने भलां - बूरां जाणतो नथी. वस्तु विचारतां कोई परद्रव्य तो भलां - बूरां छे ज नहि.

पर पदार्थोमां ‘आ सारा अने आ नरसा’ एवुं द्वैत छे ज नहि. छतां मोहाच्छादित जीवो तेमां सारा-नरसानुं द्वैत ऊभुं करे छे अने रुचित विषयमां राग अने अरुचित विषयमां - पदार्थमां द्वेष करे छे.

सम्यग्द्रष्टि कोईपण जीवनां दुर्गंधमय शरीरने देखीने ग्लानि करतो नथी. भावलिंगी मुनिओ नग्न होय छे. तेमनां शरीरने दुर्गंधवाळुं देखीने के ते शरीरनी अप्रिय (बूरी) आकृति देखीने ते प्रत्ये ते जरापण ग्लानि करतो नथी. ते शरीर तो रत्नत्रयधारी जीवोनुं मुक्तिनुं सहकारी कारण छे. एम जाणी तेने व्यवहार अपेक्षाए पवित्र जाणे छे अने ते प्रत्ये ग्लानि उत्पन्न थवा देतो नथी. आ तेनो निर्विचिकित्सा गुण छे.

निश्चय अपेक्षाए पवित्र तो निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी एकता छे. जैनमतमां बधी सारी वातो छे, पण वस्त्रना आवरण रहितनी जे नग्नता तथा जळ- स्नानादि क्रियानो अभावए दूषण छे, एवा कुत्सित भावोने विशिष्ट विवेकी ज्ञानवाळो सम्यग्द्रष्टि जीव दूर करे छे. ते पण निर्विचिकित्सा गुण छे.

‘‘सम्यग्द्रष्टि वस्तुना धर्मो प्रत्ये (अर्थात् क्षुधा, तृषा, उष्णादि भावो प्रत्ये तथा विष्टा आदि मलिन द्रव्यो प्रत्ये) जुगुप्सा (ग्लानि) करतो नथी. जुगुप्सा नामनी कर्मप्रकृतिनो उदय आवे छे तोपण पोते तेनो कर्ता थतो नथी. तेथी जुगुप्साकृत बंध तेने थतो नथी, परंतु प्रकृति रस दईने खरी जाय छे तेथी निर्जरा ज थाय छे.’’ १. जुओ मोक्षमार्ग प्रकाशक, गुजराती आवृत्ति, पृष्ठ २५०. २. जुओ श्री प्रवचनसार गाथा ८३ अने तेनी टीका. ३. जुओ द्रव्यसंग्रह गाथा ४२, पृष्ठ १७०१७१ (निर्विचिकित्सा गुणनुं वर्णन) ४. श्री समयसार गाथा २३१नो भावार्थ

सौ कोई धर्म विशे जुगुप्साभाव जे नहि धारतो,
चिन्मूर्ति निर्विचिकित्स समकितद्रष्टि निश्चय जाणवो. २३१.