Ratnakarand Shravakachar-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 14 amoDhadrashtitv guNnu lakshaN.

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रत्नकरंडक श्रावकाचार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
अधुना सद्दर्शनस्यामूढदृष्टित्वगुणं प्रकाशयन्नाह
कापथे पथि दुःखानां कापथस्थेऽप्यसम्मतिः
असंपृक्तिरनुत्कीर्तिरमूढा दृष्टिरुच्यते ।।१४।।

अमूढा दृष्टिरमूढत्वगुणविशिष्टं सम्यग्दर्शनं का ? ‘असम्मतिः’ न विद्यते मनसा सम्मतिः श्रेयःसाधनतया सम्मननं यत्र दृष्टौ क्व ? ‘कापथे’ कुत्सितमार्गे मिथ्या- दर्शनादौ कथंभूते ? ‘पथि’ मार्गे केषां ? ‘दुःखानां’ न केवलं तत्रैवासम्मतिरपि तु

विशेष

श्री परमात्मप्रकाश अध्याय १ गाथा २९ तथा तेनी टीकामां लख्युं छे के

‘‘हे जीव! तुं परमात्माने जाण. अर्थात् नित्यानंद वीतराग निर्विकल्प समाधिमां रहीने पोताना आत्मानुं ध्यान कर. शुद्धात्माथी भिन्न देहरागादिकोथी तने शुं प्रयोजन छे? कंई प्रयोजन नथी.’’

तेथी एम समजवुं के देह जोके अशुचि अने विनाशिक छे, तोपण तेना प्रत्ये द्वेष - ग्लानि के जुगुप्सा करवी न्याययुक्त छेएम सम्यग्द्रष्टि मानतो ज नथी, तो पछी साचा रत्नत्रयधारी मुनिना शरीर प्रत्ये जुगुप्सा तेने केम होई शके? १३.

हवे सम्यग्दर्शनना अमूढद्रष्टित्व गुणने प्रकाशी कहे छे

४. अमूढद्रष्टित्व गुणनुं लक्षण
श्लोक १४

अन्वयार्थ :[दुःखानां ] दुःखोना [पथि ] मार्गरूप (कारणरूप) [कापथे ] (मिथ्यादर्शनादि रूप) कुमार्गमां [अपि ] अने [कापथस्थे ] कुमार्गमां स्थित जीवमां पण [असम्मतिः ] मनथी संमत न होवुं, [असंपृक्ति ] कायाथी संपर्क (सहारो) न करवो अने [अनुत्कीर्तिः ] वचनथी प्रशंसा न करवी, तेने [अमूढा दृष्टिः ] अमूढद्रष्टित्व अंग [उच्यते ] कहे छे.

टीका :अमूढा दृष्टिः’ ते अमूढत्व गुण विशिष्ट सम्यग्दर्शन छे. शुं? असम्मतिः’ ज्यां द्रष्टिमां (अभिप्रायमां) मनथी संमति होती नथी अर्थात् श्रेयना साधन तरीके मानवापणुं होतुं नथी. क्यां? कापथे’ मिथ्यादर्शनादिरूप कुमार्गमां. केवा (कुमार्गमां)? दुःखानां पथि’ दुःखोनां कारणरूप एवा (कुमार्गमां). तेमां ज असंमति