Ratnakarand Shravakachar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

रत्नकरंडक श्रावकाचार
[ ४३

‘कापथस्थेऽपि’ मिथ्यादर्शनाद्याधारेऽपि जीवे तथा ‘असंपृक्तिः’ न विद्यते सम्पृक्तिः कायेन नखच्छोटिकादिनाअंगुलिचालनेन शिरोधूननेन वा प्रशंसा यत्र ‘अनुत्कीर्तिः’ न विद्यते उत्कीर्तिरुत्कीर्तनं वाचा संस्तवनं यत्र मनोवाक्यायैर्मिथ्यादर्शनादीनां तद्वतां चाप्रशंसाकरणममूढं सम्यग्दर्शनमित्यर्थः ।।१४।। एटलुं ज नहि कापथस्थेऽपि’ मिथ्यादर्शनादिना आधारभूत जीवमां पण, ज्यां असंपृक्तिः’ कायाथी संपर्क न होवो, अर्थात् नख वडे, चपटी आदिथी के आंगळी हलावीने के मस्तक धुणावीने प्रशंसा न करवी तथा ज्यां अनुत्कीर्तिः’ वाणीथी कीर्तन के स्तवन न होवुं (ते अमूढत्व गुणविशिष्ट द्रष्टि छे - सम्यग्दर्शन छे.) मन - वचन - कायाथी मिथ्यादर्शनादिनी तथा तेना उपासकोनी प्रशंसा न करवी, ते अमूढ सम्यग्दर्शन छे - एवो अर्थ छे.

भावार्थ :नरक, तिर्यंच, कुमनुष्यादि गतिनां घोर दुःखोनां कारणभूत मिथ्यादर्शनादिरूप कुमार्गने अने तेने अनुसरती व्यक्तिओने मनथी संमति न देवी, कायाथी सहारो के संपर्क न करवो अथवा चपटी के माथुं हलावी - धुणावी प्रशंसा न करवी अने वचनथी तेमनां गुण - गान के स्तवन न करवां ते अमूढद्रष्टि अंग छे.

‘‘जे चेतयिता सर्वभावोमां अमूढ छे - यथार्थ द्रष्टिवाळो छे ते खरेखर अमूढद्रष्टि सम्यग्द्रष्टि जाणवो.’’

‘‘सम्यग्द्रष्टि सर्व पदार्थोना स्वरूपने यथार्थ जाणे छे, तेने राग - द्वेष - मोहनो अभाव होवाथी तेनी कोई पदार्थ पर अयथार्थ द्रष्टि पडती नथी. चारित्रमोहना उदयथी इष्टानिष्ट भावो ऊपजे तोपण तेने उदयनुं बळवानपणुं जाणीने ते भावोनो पोते कर्ता थतो नथी.’’

‘‘जे आत्मा पोताना शुद्धात्मामां श्रद्धान, ज्ञान अने आचरणरूप निश्चयरत्नत्रय- स्वरूप भावनाना बळथी शुभ - अशुभ कर्मजनित परिणामरूप बाह्य पदार्थोमां सर्वथा असंमूढ होय छे (अर्थात् कर्मोना उदयथी जे दुःखरूप वा बाह्य शातारूप पदार्थोनी अवस्थाओ थाय छे, तेमां शोक - हर्ष नहि करतां तेना यथार्थ स्वरूपने जाणी तेना १. नखच्छोटिकादिना प्रशंसा घ० २. संमूढ नहि जे सर्व भावे,सत्यद्रष्टि धारतो,

ते मूढद्रष्टिरहित समकितद्रष्टि निश्चय जाणवो. २३२.
(श्री समयसार गाथा २३२ अने तेनो भावार्थ)