Ratnakarand Shravakachar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

रत्नकरंडक श्रावकाचार
[ ४५

व्रताद्यनुष्ठानेऽसमर्थजनमाश्रित्यागतस्य रत्नत्रये तद्वर्ति वा दोषस्य यत् प्रच्छादनं तदुपगूहनमिति ।।१५।। अहितना विवेकरहित तथा व्रतादिना अनुष्ठानमां असमर्थ एवा जनोना आश्रये रत्नत्रयमां अथवा तेना धारक पुरुषोमां आवेला दोषोने जे ढांकवुं (छुपाववुं) ते उपगूहन छे.

भावार्थ :जेओ हिताहितना विवेकथी रहित छे, अज्ञानी छे तथा जेओ व्रतादिकनुं आचरण करवामां अशक्त छेअसमर्थ छे तेवा पुरुषो द्वारा, रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग संबंधी या मोक्षमार्गना उपासको संबंधी जे निंदा थई होय तेने प्रगट न करवी (छुपाववी) ते उपगूहन अंग छे.

एकनो दोष देखी समस्त धर्म या सर्व धर्मात्माओ दूषित थशे एम जाणी सम्यग्द्रष्टि कोई साधर्मीना दोषने प्रगट करतो नथी. आमां दोषने उत्तेजन आपवानो तेनो हेतु नथी, परंतु जे धर्म प्रत्ये तेनी प्रीति छे तेनी निंदा न थाय ते जोवानो तेनो प्रधान हेतु छे.

‘‘जे चेतयिता सिद्धनी (शुद्धात्मानी) भक्ति सहित छे अने परवस्तुना सर्व धर्मोने गोपवनार छे (अर्थात् रागादि परभावोमां जोडातो नथी) ते उपगूहनकारी सम्यग्द्रष्टि जाणवो.’’

‘‘सम्यग्द्रष्टि उपगूहन गुण सहित छे. उपगूहन एटले गोपववुं ते. अहीं निश्चयनयने प्रधान करीने कह्युं छे के सम्यग्द्रष्टिए पोतानो उपयोग सिद्धभक्तिमां जोडेलो अने ज्यां उपयोग सिद्धभक्तिमां जोड्यो त्यां अन्य धर्मो पर द्रष्टि ज न रही, तेथी ते सर्व अन्य धर्मोनो गोपवनार छे अने आत्मशक्तिनो वधारनार छे.

आ गुणनुं बीजुं नाम ‘उपबृंहण’ पण छे. उपबृंहण एटले वधारवुं ते. सम्यग्द्रष्टिए पोतानो उपयोग सिद्धना स्वरूपमां जोडेलो होवाथी तेना आत्मानी सर्व शक्तिओ वधे छे, आत्मा पुष्ट थाय छे, माटे ते उपबृंहण गुणवाळो छे.’’ १५. १.जे सिद्धभक्तिसहित छे, उपगूहक छे सौ धर्मनो,

चिन्मूर्ति ते उपगूहनकर समकितद्रष्टि जाणवो. २३३.

(श्री समयसार गाथा २३३ अने तेनो भावार्थ)