Ratnakarand Shravakachar-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 17 vAtslya guNanu lakshaN.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

रत्नकरंडक श्रावकाचार
[ ४७
अथ वात्सल्यगुणस्वरूपं दर्शने प्रकटयन्नाह
स्वयूथ्यान्प्रति सद्भावसनाथापेतकैतवा
प्रतिपत्तिर्यथायोग्यं वात्सल्यमभिलप्यते ।।१७।।

‘वात्सल्यं’ सधर्मिणि स्नेहः ‘अभिलप्यते’ प्रतिपाद्यते कासौ ? ‘प्रतिपत्तिः’ पूजाप्रशंसादिरूपा कथं ? ‘यथायोग्यं’ योग्यानतिक्रमेण अञ्जलिकरणाभिमुखगमन प्रशंसावचनोपकरणसम्प्रदानादिलक्षणा कान् प्रति ? ‘स्वयूथ्यान्’ जैनान् प्रति कथंभूता ? स्थितिकरणयुक्त सम्यग्द्रष्टि जाणवो.’’

‘‘ते स्थितिकरण, स्व अने परना भेदथी बे प्रकारनुं छे. तेमां जे पोतानी भूलने पोतानी मेळे परिणामोनी शुद्धता द्वारा सुधारे छे, तेने निश्चयथी स्वस्थितिकरण कहे छे. तथा पोतानाथी भिन्न व्यक्तिने सम्यग्दर्शन वा सम्यक्चारित्रथी पतित थती जोईने तेने धर्मोपदेश द्वारा शंका - समाधान पूर्वक फरीथी सम्यग्दर्शन वा सम्यक्चारित्रमां स्थिर करवाना भावने व्यवहारथी परस्थितिकरण कहे छे.’’ १६.

हवे सम्यग्दर्शनना वात्सल्य गुणनुं स्वरूप प्रगट करी कहे छे

७. वात्सल्य गुणनुं लक्षण
श्लोक १७

अन्वयार्थ :[स्वयूथ्यान् प्रति ] पोताना सहधर्मीओ प्रत्ये [सद्भावसनाथा ] सद्भाव (सरळता) सहित. [अपेतकैतवा ] माया रहित [यथायोग्यम् ] यथायोग्य [प्रति- पत्तिः ] आदर - सत्कारादि करवो ते [वात्सल्यम् ] वात्सल्य अंग [अभिलप्यते ] कहेवाय छे.

टीका :वात्सल्यं’ सहधर्मी प्रत्ये स्नेह अभिलप्यते’ कहेवाय छे. वात्सल्य एटले शुं? प्रतिपत्तिः’ पूजा प्रशंसादिरूप सत्कार. केवी रीते? यथायोग्यम्’ जे योग्य छे तेनुं उल्लंघन कर्या सिवाय अर्थात् बंने हाथ जोडवा, सामे जवुं, प्रशंसानां वचन कहेवां, उपकरण (साधनो)नुं दान आपवुं - वगेरे रूप यथायोग्य (सत्कार करवो), कोना प्रति? स्वयूथ्यान्’ जैनो प्रति. केवो (सत्कार)? सद्भावसनाथा’ सद्भावना अवक्रता - सरळता १. उन्मार्गगमने स्वात्मने पण मार्गमां जे स्थापतो,

चिन्मूर्ति ते स्थितिकरणयुत समकितद्रष्टि जाणवो. २३४. (श्री समयसार गाथा २३४.)

२. श्री पंचाध्यायीउत्तरार्ध गाथा ७९२नो भावार्थ.