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‘सद्भावसनाथा’ सद्भावेनावक्रतया सहिता चित्तपूर्विकेत्यर्थः । अत एव ‘अपेतकैतवा’ अपेतं विनष्टं कैतवं माया यस्याः ।।१७।।
सहित हृदयपूर्वक - एवो अर्थ छे. तेथी ज ‘अपेतकैतवा’ अपेत एटले नष्ट अने कैतव एटले माया, जेमां माया नाश पामी छे तेवो अर्थात् माया रहित (सत्कार).
भावार्थ : — पोताना सहधर्मी भाईओनो विनयपूर्वक, सारा भावसहित, कपट रहित - खरा दिलथी, यथायोग्य नमस्कार, विनय, स्तुति, दान, प्रशंसा अने उपकरण आदि द्वारा आदर - सत्कार करवो ते वात्सल्य अंग छे.
‘‘जे चेतयिता मोक्षमार्गमां रहेला सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूपी त्रण साधको - साधनो प्रत्ये (अथवा व्यवहारे आचार्य, उपाध्याय अने मुनि — ए त्रण साधुओ प्रत्ये) वात्सल्य करे छे, ते वात्सल्यभाव युक्त (वात्सल्यभाव सहित) सम्यग्द्रष्टि जाणवो.’’१
स्थितिकरण अंगनी जेम वात्सल्य अंग पण स्व अने परना भेदथी बे प्रकारनुं छे. परिषह - उपसर्गादि द्वारा पीडित थवा छतां पण कोई शुभ आचरणमां, ज्ञान अने ध्यानमां शिथिलता न आववा देवी ते स्वात्मसंबंधी वात्सल्य छे अने अन्य संयमीओ उपर घोर परिषह उपसर्गादिक आवी पडतां तेमनी बाधा दूर करवानो भाव थवो ते परवात्सल्य छे.’’२ १७.
हवे सम्यग्दर्शनना प्रभावना गुणना स्वरूपनुं निरूपण करी कहे छे —
अन्वयार्थ : — [अज्ञानतिमिरव्याप्तिम् ] अज्ञानरूपी अंधकारना फेलावाने १. जे मोक्षमार्गे ‘साधु’त्रयनुं वत्सलत्व करे अहो!
२. जुओ श्री पंचाध्यायी उत्तरार्ध गाथा ८०६ थी ८०८.