Ratnakarand Shravakachar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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जे आत्माने पोताना ज्ञानानंद स्वभावी आत्मानी द्रष्टिपूर्वक स्वानुभवयुक्त सम्यक्दर्शन प्राप्त थयुं होय तेवा ज्ञानी धर्मात्माने केवा देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धा-भक्ति-अर्पणता पोतानी वर्तमान श्रद्धा पर्यायमां वर्ते छे ते द्वारा आचार्यदेवे सम्यक्दर्शननुं स्वरुप समजाव्युं छे. ते माटे तेओश्रीए देव-शास्त्र-गुरु माटे परमार्थानाम’ ए विशेषण द्वारा ज्ञानी धर्मात्मा साचा देव-गुरु-शास्त्रने ज श्रद्धे छे, एवो ज कचाशरुप रागनो प्रकार तेमने वर्ते छे ते वातने अत्यंत स्पष्ट करी छे. त्यारबाद तेओए आगळ आ साचा देव-शास्त्र अने गुरु केवा होय तेनुं स्वरुप समजाव्युं छे. त्यारबाद आ सम्यग्द्रष्टिने आठ अंग केवा होय छे तेनुं वर्णन करी सम्यग्द्रष्टिना स्वरुपने विशेषरुपे समजाववा माटे सम्यग्द्रष्टिने त्रण मूढता, आठ मद, वगेरेनो अभाव होय छे ते पण दर्शाव्युं छे. ए सम्यक्त्वनी भूमिकानुं उत्कृष्ट स्वरुप छे. आ प्रमाणे सम्यक्दर्शननुं स्वरुप समजावी तेओश्री सम्यक्दर्शननुं महत्त्व अने महिमा पण घणा ज विस्तारथी चर्ची आ अधिकार पूरो करे छे.

बीजा अधिकारमां तेओश्री भावश्रुतज्ञानना धारक सम्यग्द्रष्टिने चार अनुयोगमय द्रव्यश्रुतना मर्मनुं पण यथार्थज्ञान होय छे, ए प्रमाणे सम्यग्ज्ञाननुं स्वरुप पण बतावे छे.

हवेथी आगळना अधिकारोमां आचार्यदेव पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावकना निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान पूर्वकना अपूर्ण चारित्रनुं वर्णन व्यवहारनये बाह्य आचरणनी मुख्यताथी करे छे. आ ग्रंथनो अभ्यास करनाराओए ए वात अवश्य लक्षमां लेवा जेवी छे के आ ग्रंथमां सम्यक्दर्शन-ज्ञान प्राप्त पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावकना बाह्यजीवन द्वारा तेनी अंतरंग आत्मसाधनाने समजाववानो ज प्रयत्न कर्यो छे. एटले के व्यवहार द्वारा परमार्थ साधनानुं ज प्रतिपादन कर्युं छे. आना परथी एम न मानवुं जोइए के आवुं बाह्य आचरण करनार ते श्रावक छे अने एम पण न मानवुं जोइए के आवुं बाह्य आचरण करवाथी अंतरंगमां पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावकपणुं प्राप्त थइ जशे. अहीं तो मात्र पंचम गुणस्थानवर्ती साधक श्रावकनी हठ विनानी बाह्य साधना आवी ज सहज होय ते दर्शावी अंतरंग अने बहिरंग साधना एटले के निश्चय-व्यवहारनो सुमेळ साधकजीवने केवो होय छे तेनुं ज दिग्दर्शन कराव्युं छे.

आचार्यदेव त्रीजा अधिकारमां स्वरुप रमणतामय वीतरागचारित्रनी अनिवार्यता समजावी टुंकमां सकल चारित्रनुं स्वरुप बतावी ते धारण करवा जे जीव असमर्थ होय तेने आगार अने अनगार बे प्रकारनुं चारित्र समजावी मंद पुरुषार्थी श्रावकोने विकल चारित्र-देशचारित्र-गृहस्थनो धर्म समजाववानी शरुआत करे छे. आमां तेओ पांच अणुव्रत अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रह-परिमाणनुं स्वरुप तथा तेना पालनमां लागता पांच पांच अतिचारोनुं स्वरुप समजावी ते अतिचारो रहित पांच अणुव्रतना पालननो उपदेश आपे छे.

आचार्यदेव चोथा अध्यायमां श्रावकना त्रण गुणव्रतो, दिग्व्रत, अनर्थदंडव्रत तथा भोगोपभोग परिमाणव्रतनुं विस्तारथी वर्णन करे छे. आ अधिकारनी ७१ गाथामां आ व्रतनुं पालन करनार श्रावकने उपचारथी महाव्रतनी परिभाषा आपी ते व्रत कोने होय छे ते पण दर्शाव्युं छे. त्यार पछी दरेक व्रतनी चर्चा करी दरेक व्रतना पांच पांच अतिचार दर्शाव्या छे. त्यारबाद व्रतना लक्षण, यम-नियमरुप व्रतनुं स्वरुप, नियम करवानी विधि वगेरे पण दर्शाव्या छे.

आचार्यदेवे पांचमा अधिकारमां देशावकाशिक सामायिक, प्रोषधोपवास अने वैयावृत्य ए चार शिक्षाव्रतोनुं विस्तारथी स्वरुप तथा दरेक व्रतना पांच अतिचारनुं वर्णन कर्युं छे. आ अधिकारमां दाननुं स्वरुप, भेद अने तेना फळनुं पण टूंकमां वर्णन करेल छे.