Ratnakarand Shravakachar-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 22 lokmudhatA.

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७८ ]

रत्नकरंडक श्रावकाचार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

सम्यग्दर्शनस्य संसारोच्छेदसाधनेऽष्टाङ्गोपेतत्वं युक्तमेव, त्रिमूढापोढत्ववत्

कानि पुनस्तानि त्रीणि मूढानि यदमूढत्वं तस्य संसारोच्छेदसाधनं स्यादिति चेदुच्यते, लोकदेवतापाखंडिमूढभेदात् त्रीणि मूढानि भवन्ति तत्र लोकमूढं तावद्दर्शयन्नाह

आपगासागरस्नानमुच्चयः सिकताश्मनाम्
गिरिपातोऽग्निपातश्च लोकमूढं निगद्यते ।।२२।।

‘लोकमूढं’ लोकमूढत्वं किं ? ‘आपगासागरस्नानं’ आपगा नदी सागरः समुद्रः तत्र दूर करवाने योजेलो एक पण ओछा अक्षरवाळो मंत्र विषनी वेदनाने दूर करी शकतो ज नथी. तेथी सम्यग्दर्शनने संसारउच्छेदना साधनभूत थवामां अष्टांगसहितपणुं योग्य ज छे. तेना त्रिमूढतारहितपणानी माफक.

भावार्थ :जेम एक पण अक्षरहीन मंत्र विषनी वेदनाने दूर करी शकतो नथी, तेम आठ अंग रहित सम्यग्दर्शन जन्ममरणनी परंपरानो नाश करी शकतुं नथी. अर्थात् अंगरहित सम्यग्दर्शनथी संसारनो नाश थई शकतो नथी; आठ अंग सहित सम्यग्दर्शन ज तेनो नाश करी शके छे. २१.

प्रश्नःकई ते त्रण मूढता छे के जेना रहितपणाथी सम्यग्दर्शन संसारउच्छेदनुं साधन थाय छे?

उत्तरःत्रण मूढता आ प्रमाणे छेलोकमूढता, देवमूढता अने पाखंडीमूढता. त्यां प्रथम लोकमूढता दर्शावतां कहे छेः

लोकमूढतालोकमूढता
श्लोक २२
श्लोक २२

अन्वयार्थ :[आपगासागरस्नानं ] (धर्म समजीने) नदीसमुद्रमां स्नान करवुं, [सिकताश्मनाम् ] रेती अने पथ्थरोनो [उच्चयः ] ढगलो करवो (मिनारो बनाववो), [गिरिपातः ] पर्वत उपरथी पडवुं [च ] अने [अग्निपातः ] अग्निमां पडवुं (सती थवुं)ते [लोकमूढं ] लोकमूढता [निगद्यते ] कहेवाय छे.

टीका :लोकमूढं’ ते लोकमूढता छे. ते शुं छे? आपगासागरस्नानं’ आपगा