टीका — इदं शरीरादिकं दृश्यमिन्द्रियैः प्रतीयमानं । अचेतनं जडं रोषतोषादिकं कृतं न जानातीत्यर्थः । यच्चेतनमात्मस्वरूपं तददृश्यमिन्द्रियग्राह्यं न भवति । ततः यतो रोषतोषविषयं दृश्यं शरीरादिकमचेतनं चेतनं स्वात्मस्वरूपमदृश्यत्वात्तद्विषयमेव न भवति ततः क्व रुष्यामि क्व राग – द्वेष थई जाय छे, तेथी तेने ज्ञानचेतना साथे कदाचित् कर्मचेतना अने कर्मफल – चेतनानो पण सद्भाव मानवामां आव्यो छे, पण ते कर्मचेतना अने कर्मफळचेतनानो ज्ञाता – द्रष्टा रहे छे. वास्तवमां ते बंने चेतनाओ ज्ञानचेतना ज छे.१
अंतरात्माने पूर्वना संस्कारोने लीधे नीचेनी भूमिकामां जे भ्रान्ति थाय छे ते मिथ्यात्वजनित नथी, परंतु अस्थिरताजनित छे; तेथी तेने राग – द्वेष थवा छतां तेना सम्यक्त्वमां कांई दोष आवतो नथी. ४५.
फरीथी भ्रान्ति पामेलो ते (अन्तरात्मा) तेने (भ्रान्तिने) केवी रीते छोडे ते कहे छेः —
अन्वयार्थ : (इदं दृश्यं) आ शरीरादि द्रश्य पदार्थ (अचेतनं) चेतनारहित – जड छे अने जे (चेतनं) चैतन्यस्वरूप आत्मा छे ते (अदृश्यं) इन्द्रियोद्वारा देखाय तेवो नथी; (ततः) तेथी (क्व रुष्यामि) हुं कोना उपर रोष करुं? अने (क्व तुष्यामि) कोना उपर राजी थाउं? (अतः अहं मध्यस्थः भवामि) एटला माटे हुं मध्यस्थ थाउं छुं – एम अन्तरात्मा विचारे छे.
टीका : आ एटले शरीरादिक, जे द्रश्य एटले इन्द्रियोद्वारा देखावा योग्य छे – प्रतीतिमां आववा योग्य छे, ते अचेतन – जड छे; ते करेला रोष – तोषादिकने जाणतुं नथी – एवो अर्थ छे. जे चेतन – स्वात्मस्वरूप छे, ते अद्रश्य छे एटले इन्द्रियोद्वारा ग्राह्य नथी; तेथी हुं कोना उपर रोष करुं? अने कोना उपर तोष करुं? कारण के द्रश्य शरीरादिक अचेतन १. जुओ – श्री पंचाध्यायी – उत्तरार्द्ध गु. आवृत्ति – गाथा २०५, २७६, ४१९