Samadhitantra-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 47.

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८६समाधितंत्र तुष्याम्यहं अतः यतो रोषतोषयोः कश्चिदपि विषयो न घटते अतः मध्यस्थ उदासीनोऽहं भवामि ।।४६।।

इदानीं मूढत्मनोऽन्तरात्मनश्च त्यागोपादानविषयं प्रदर्शयन्नाह
त्यागादाने बहिर्मूढः करोत्यध्यात्ममात्मवित्
नान्तर्बहिरुपादानं न त्यागो निष्ठितात्मनः ।।४७।।

छे अने चेतनआत्मस्वरूप अद्रश्य छे, माटे हुं मध्यस्थउदासीन थाउं छुं, कारण के रोष तोषनो विषय कोईपण घटतो नथी.

भावार्थ : पूर्वना चारित्र संबंधी भ्रान्तिरूप संस्कारो जागृत थाय छे त्यारे अंतरात्मा समाधानरूपे विचारे छे के, ‘‘शरीरादिक पदार्थो जे द्रष्टिगोचर छे ते अचेतन छेजड छे; तेना उपर हुं रागद्वेष करुं तो ते व्यर्थ छे. आत्मा जे चेतन छे, रागद्वेषभावने जाणी शके छे, ते तो अद्रश्य छेद्रष्टिगोचर नथी, तेथी ते पण मारा रागद्वेषनो विषय बनी शकतो नथी; माटे कोईना उपर रागद्वेष नहि करतां, सर्व बाह्य पदार्थोथी उदासीन थई मध्यस्थ (वीतरागी) भाव धारण करवो योग्य छे, अर्थात् पर प्रत्ये उदासीनता सेवी, तेना केवळ ज्ञाताद्रष्टा रही, आत्मतत्त्वने ज ज्ञाननो विषय बनाववो अने तेमां ज स्थिर थवुं ते उचित छे.’’

ज्ञानीने अल्प रागद्वेष थाय पण भेदज्ञानना बळे ते उपर प्रमाणे अंदर समाधान करी पोताना ज्ञानना विषयने तुरत पलटी नाखे छे अने ज्ञानानंदस्वरूपने ज ज्ञाननो विषय बनावे छे. तेनी वारंवार भावना भावतां रागद्वेषनी वृत्ति स्वयं क्रमे क्रमे टळी जाय छे. ४६.

हवे बहिरात्मा अने अन्तरात्माना त्यागग्रहणना विषयने स्पष्ट करतां कहे छेः

श्लोक ४७

अन्वयार्थ : (मूढः) मूर्ख बहिरात्मा (बहिः) बाह्य पदार्थोनो (त्यागादाने करोति) त्याग अने ग्रहण करे छे, (आत्मवित्) आत्माना स्वरूपने जाणनार अन्तरात्मा (अध्यात्मं

मूढ बहिर त्यागे-ग्रहे, ज्ञानी अंतरमांय;
निष्ठितात्मने ग्रहण के त्याग न अंतर्बाह्य. ४७.