८६समाधितंत्र तुष्याम्यहं । अतः यतो रोषतोषयोः कश्चिदपि विषयो न घटते अतः मध्यस्थ उदासीनोऽहं भवामि ।।४६।।
छे अने चेतन – आत्मस्वरूप अद्रश्य छे, माटे हुं मध्यस्थ – उदासीन थाउं छुं, कारण के रोष – तोषनो विषय कोईपण घटतो नथी.
भावार्थ : पूर्वना चारित्र संबंधी भ्रान्तिरूप संस्कारो जागृत थाय छे त्यारे अंतरात्मा समाधानरूपे विचारे छे के, ‘‘शरीरादिक पदार्थो जे द्रष्टिगोचर छे ते अचेतन छे – जड छे; तेना उपर हुं राग – द्वेष करुं तो ते व्यर्थ छे. आत्मा जे चेतन छे, राग – द्वेषभावने जाणी शके छे, ते तो अद्रश्य छे – द्रष्टिगोचर नथी, तेथी ते पण मारा राग – द्वेषनो विषय बनी शकतो नथी; माटे कोईना उपर राग – द्वेष नहि करतां, सर्व बाह्य पदार्थोथी उदासीन थई मध्यस्थ (वीतरागी) भाव धारण करवो योग्य छे, अर्थात् पर प्रत्ये उदासीनता सेवी, तेना केवळ ज्ञाता – द्रष्टा रही, आत्मतत्त्वने ज ज्ञाननो विषय बनाववो अने तेमां ज स्थिर थवुं ते उचित छे.’’
ज्ञानीने अल्प राग – द्वेष थाय पण भेद – ज्ञानना बळे ते उपर प्रमाणे अंदर समाधान करी पोताना ज्ञानना विषयने तुरत पलटी नाखे छे अने ज्ञानानंदस्वरूपने ज ज्ञाननो विषय बनावे छे. तेनी वारंवार भावना भावतां राग – द्वेषनी वृत्ति स्वयं क्रमे क्रमे टळी जाय छे. ४६.
हवे बहिरात्मा अने अन्तरात्माना त्यागग्रहणना विषयने स्पष्ट करतां कहे छेः —
अन्वयार्थ : (मूढः) मूर्ख बहिरात्मा (बहिः) बाह्य पदार्थोनो (त्यागादाने करोति) त्याग अने ग्रहण करे छे, (आत्मवित्) आत्माना स्वरूपने जाणनार अन्तरात्मा (अध्यात्मं