Samadhitantra-Gujarati (Devanagari transliteration).

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समाधितंत्र८७

टीकामूढो बहिरात्मा त्यागोपादाने करोति क्व ? बहिर्बाह्ये हि वस्तुनि द्वेषोदयादभिलाषाभावान्मूढात्मा त्यागं करोति रागोदयात्तत्राभिलाषोत्पत्तेरुपादामिति आत्मवित् अन्तरात्मा पुनरध्यात्मनि स्वात्मरूप एव त्यागोपादाने करोति तत्र हि त्यागोरागद्वेषादेरन्तर्जल्पविकल्पादेर्वा स्वीकारश्चिदानन्दादेः यस्तु निष्ठितात्मा कृतकृत्यात्मा तस्य अन्तर्बहिर्वा नोपादानं तथा न त्यागोऽन्तर्बहिर्वा ।।४७।। त्यागादाने करोति) अंतरंग रागद्वेषनो त्याग अने सम्यक्रत्नत्रयरूप आत्मस्वरूपनुं ग्रहण करे छे, परंतु (निष्ठितात्मनः) शुद्धस्वरूपमां स्थित आत्माने (अन्तः बहिः) अंतरंग अने बहिरंग कोईपण पदार्थनो (न त्यागः) न तो त्याग होय छे अने (न उपादानं) न तो ग्रहण होय छे.

टीका : मूढ बहिरात्मा त्यागग्रहण करे छे, शामां (करे छे)? बहारमां एटले बाह्य वस्तुमां; द्वेषना उदयने लीधे अभिलाषाना अभावना कारणे मूढात्मा (बहिरात्मा) तेनो (बाह्य वस्तुनो) त्याग करे छे अने रागनो उदय थतां तेनी अभिलाषानी उत्पत्तिना कारणे तेनुं (बाह्य वस्तुनुं) ग्रहण करे छे; परंतु आत्मविद् एटले अन्तरात्मा आत्मामां ज अर्थात् आत्मस्वरूप विशे ज त्याग ग्रहण करे छे. त्यां त्याग तो रागद्वेषादिनो के अन्तर्जल्परूप विकल्पादिनो अने स्वीकार (ग्रहण) चिदानंदादिनो होय छे.

जे निष्ठितात्मा अर्थात् कृतकृत्य आत्मा छे तेने अन्तरात्मा के बाह्यमां (कांई) ग्रहण नथी तथा अंतरमां के बाह्यमां (कांई) त्याग नथी.

भावार्थ : बहिरात्मा, जे पदार्थ इष्ट लागे छे तेने ग्रहण करवा इच्छे छे अने जे पदार्थ अनिष्ट लागे छे तेनो त्याग करवा इच्छे छे. वास्तवमां कोई ज्ञानी के अज्ञानी बाह्य पदार्थोना ग्रहणत्याग करी शकतो ज नथी, छतां बहिरात्मा तेना ग्रहणत्याग करवानुं माने छे, ए तेनी मूढता छे.

अंतरात्मा आत्मस्वरूपमां ज ग्रहणत्याग करे छे, अर्थात् ते बाह्य पदार्थोथी चित्तवृत्ति हठावी स्वसन्मुख थई पोताना शुद्ध चैतन्यस्वरूपनुं ग्रहण करे छे; तेम करतां राग द्वेषादिनो के विकल्पादिनो स्वयं त्याग थई जाय छे. रागादिनी अनुत्पत्ति ते ज त्याग छे.

शुद्धस्वरूपमां स्थित आत्मा (निष्ठितात्मा) कृतकृत्य होवाथी तेने बाह्य या अंतरंग कोई पण विषयमां ग्रहणत्यागनी प्रवृत्ति होती नथी. ते तो पोताना चिदानंदस्वरूपमां सदा स्थिर रहे छे. १. जुओश्री समयसार, गु. आवृत्ति गाथा ४०६ अने ‘समाधितंत्र’ श्लोक २०नो ‘विशेष’ पृ. ३८