चित्तमात्मेत्यभेदेनाध्यवसेदित्यर्थः । वाक्कायाभ्यां तु पुनर्वियोजयेत् पृथक्कुर्यात् वाक्काययोरात्माभेदाध्यवसायं
न कुर्यादित्यर्थः । एतच्च कुर्वाणो व्यवहारं तु प्रतिपाद्यप्रतिपादकभावलक्षणं प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपं वा ।
वाक्काययोजितं वाक्कायाभ्यां योजितं सम्पादितं । केन सह ? मनसा सह मनस्यारोपितं व्यवहारं मनसा
त्यजेत् चित्तेन न चिन्तयेत् ।।४८।।
एवो अर्थ छे – अने वाणी तथा कायथी तेने (आत्माने) वियुक्त करे – पृथक् करे, अर्थात् वाणी अने कायामां आत्मानो अभेदरूप अध्यवसाय करे नहि – एवो अर्थ छे; अने तेम करनार, वाक् – काययोजित अर्थात् वाणी – कायद्वारा योजित अर्थात् सम्पादित ‘प्रतिपाद्य’ प्रतिपादकभावरूप (शिष्ट – गुरु संबंधरूप) प्रवृत्ति – निवृत्तिरूप व्यवहारने, कोनी साथे (योजित)? मन साथे अर्थात् मनमां आरोपित व्यवहारने, मनथी तजे अर्थात् मनमां चिंतवे नहि.
भावार्थ : अंतरात्मा भावमनने वाणी अने देहनी क्रिया तरफथी (प्रवृत्तिथी) वियुक्त करीने – अलग करीने आत्मस्वरूपमां लगाडे अर्थात् तेनी साथे अभेद करे – तल्लीन करे अने वाणी तथा काय – द्वारा योजित प्रवृत्ति – निवृत्तिरूप व्यवहारने मनमांथी तजे अर्थात् तेनो विचार छोडी दे.
वाणी – कायनी प्रवृत्ति ते जडनी क्रिया छे, आत्मा ते करी शकतो नथी. अन्तरात्माने भेदज्ञान छे, तेथी ते पोताना उपयोगने वाणी – कायनी क्रिया तरफथी हठावी पोताना आत्मस्वरूपमां रोके छे.
ज्यां सुधी जीव वचन – कायथी क्रिया साथे एकताबुद्धि करे – तेने आत्मानी क्रिया समजे, त्यां सुधी तेनो उपयोग त्यांथी छूटी स्वसन्मुख वळे नहि अने आत्मस्वरूपमां स्थिर थाय नहि.
उपयोगद्वारा स्वनुं ग्रहण करवामां ज समस्त परद्रव्योनो अने परभावोनो स्वयं त्याग थई जाय छे.
नीचली भूमिकामां ज्ञानीनो उपयोग कदाचित् अस्थिरताने लीधे वाणी कायनी क्रियाद्वारा पर साथेना व्यवहारमां जोडाय छे, पण तेमां तेने कर्तृत्वबुद्धिनो अभाव छे – अभिप्रायमां तेनो निषेध छे. जेम रोगीने कडवी दवा प्रत्ये अरुचि होय छे, तेम तेने ते प्रत्ये उदासीनता होय छे; तेथी ज्ञानीनो उपयोग शरीरादिनी क्रियामां जोडायेलो देखाय, छतां ते नहि जोडायेला समान छे.
शरीर – वाणीनी क्रिया विषे एकता बुद्धिनो – आत्मबुद्धिनो त्याग अने शुद्धात्मस्वरूपनुं ग्रहण ते अंतरात्मानां अंतरंग त्याग ग्रहण छे.