९०समाधितंत्र
ननु पुत्रकलत्रादिना सह वाक्कयव्यवहारे तु सुखोत्पत्तिः प्रतीयते कथं तत्त्यागो युक्त इत्याह —
टीका — देहात्मदृष्टिनां बहिरात्मनां जगत् पुत्रकलत्रादिप्राणिगणो विश्वास्यमवञ्चकं । रम्यमेव च रमणीयमेव प्रतिभाति । स्वात्मन्येव स्वस्वरूपे एवात्मदृष्टिनां अन्तरात्मनां क्व विश्वासः क्व वा रतिः ? न क्वापि पुत्रकलत्रादौ तेषां विश्वासो रतिर्वा प्रतिभातीत्यर्थः ।।४९।।
अहीं व्यवहारना त्यागनो आचार्ये निर्देश कर्यो छे. ते एम सूचवे छे के आत्मकार्य माटे व्यवहार आश्रय करवा योग्य नथी. ४८.
पुत्र – स्त्री आदि साथेना वाणी – कायना व्यवहारमां तो सुखनी उत्पत्तिनी प्राप्ति थाय छे, तो तेनो (व्यवहारनो) त्याग केवी रीते योग्य छे? ते कहे छेः —
अन्वयार्थ : (देहात्मदृष्टिनां) देहमां आत्मबुद्धि राखनार मिथ्याद्रष्टि बहिरात्माओने (जगत्) स्त्री – पुत्र – मित्रादिना समूहरूप जगत् (विश्वास्यं) विश्वास करवा योग्य (च) अने (रम्यं एव) रमणीय ज भासे छे. परंतु (स्वात्मनि एवात्मदृष्टिनां) पोताना आत्मामां ज आत्मद्रष्टि राखनार सम्यग्द्रष्टि अंतरात्माने (क्व विश्वासः) स्त्री – पुत्रादिरूप जगत्मां केम विश्वास होई शके? (वा) अथवा (क्व रतिः) केम रति होई शके? कदी पण नहि.
टीका : देहमां आत्मद्रष्टिवाळा बहिरात्माओने पुत्र – भार्यादि प्राणीसमूहरूप जगत् विश्वास करवा योग्य अर्थात् अवंचक (नहि ठगनारुं) तथा रम्य ज एटले रमणीय ज प्रतिभासे छे.
स्वात्मामां ज एटले स्वस्वरूपमां ज आत्मद्रष्टिवाळा अन्तरात्माओने विश्वास क्यां के रति क्यां? तेमने पुत्र – स्त्री आदिमां क्यांय पण विश्वास के रति प्रतिभासती नथी – एवो अर्थ छे.