Samadhitantra-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 50.

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समाधितंत्र९१
नन्वेवमाहारादावप्यन्तरात्मनः कथं प्रवृत्तिः स्यादित्याह
आत्मज्ञानात्परं कार्यं न बुद्धौ धारयेच्चिरम्
कुर्यादर्थवशात्किंचिद्वाक्कायाभ्यामतत्परः ।।५०।।

भावार्थ : जेने देहमां आत्मबुद्धि छे तेने स्त्रीपुत्रमित्रादिरूप जगत् ज विश्वासयोग्य अने रम्यसुखदायक लागे छे अने तेथी ते तेमनी साथे वाणी कायनो व्यवहार करवानो विकल्प करे छे.

ज्ञानीने स्त्रीपुत्रादि बाह्य पदार्थोमां आत्मबुद्धि नथी, तेमां तेने वास्तविक सुख भासतुं नथी अने ते विश्वासयोग्य तथा रमणीय लागता नथी, तेथी तेने तेमनी साथे वचन व्यवहार अने शरीरव्यवहारनो, अभिप्रायमां, त्याग वर्ते छे. आत्मा ज तेने विश्वास करवा योग्य अने रम्य जणाय छे अने तेमां ज वास्तविक सुख भासे छे. तेथी ते जगतना पदार्थोमां सुख होवानो विश्वास केम करे? न ज करे.

विशेष

अज्ञानी बाह्य पदार्थोना संयोगमां सुख मानी तेनो विश्वास करे छे, पण ते संयोगो पलटतां या तेनो वियोग थतां तेना कल्पेला सुखनो अंत आवे छे. ए रीते बाह्य संयोगोना विश्वासे ते छेतरायठगाय छे. वास्तवमां अनुकूळ के प्रतिकूळ लागता संयोगोमां क्यांय सुख नथी, छतां तेमां सुख मानी ठगाई जाय छे.

ज्ञानीने पोतानो आत्मा ज इष्ट छेवहालो छे. तेने जगतजगतना पदार्थो वहाला सुखरूप लागता नथी. समकिती चक्रवर्तीने छ खंडनुं राज्य अने हजारो राणीओ वगेरेनो संयोग होय छे, पण तेमां तेने सुख माटे स्वप्नेय विश्वास नथी. तेने तो पोताना चैतन्यात्मानो ज विश्वास छे अने तेमां ज सुख भासे छे. तेने ‘जगत इष्ट नहि आत्मथी.’ ४९.

एवी रीते होय तो आहारादिमां पण अन्तरात्मानी प्रवृत्ति केम थाय? ते कहे छेः

श्लोक ५०

अन्वयार्थ : अन्तरात्मा (आत्मज्ञानात् परं) आत्मज्ञानथी भिन्न (कार्यं) कोई कार्यने

आत्मज्ञान वण कार्य कंई मनमां चिर नहि होय;
कारणवश कंई पण करे त्यां बुध तत्पर नो’य. ५०.
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