भावार्थ : जेने देहमां आत्मबुद्धि छे तेने स्त्री – पुत्र – मित्रादिरूप जगत् ज विश्वासयोग्य अने रम्य – सुखदायक लागे छे अने तेथी ते तेमनी साथे वाणी कायनो व्यवहार करवानो विकल्प करे छे.
ज्ञानीने स्त्री – पुत्रादि बाह्य पदार्थोमां आत्मबुद्धि नथी, तेमां तेने वास्तविक सुख भासतुं नथी अने ते विश्वासयोग्य तथा रमणीय लागता नथी, तेथी तेने तेमनी साथे वचन – व्यवहार अने शरीर – व्यवहारनो, अभिप्रायमां, त्याग वर्ते छे. आत्मा ज तेने विश्वास करवा योग्य अने रम्य जणाय छे अने तेमां ज वास्तविक सुख भासे छे. तेथी ते जगतना पदार्थोमां सुख होवानो विश्वास केम करे? न ज करे.
अज्ञानी बाह्य पदार्थोना संयोगमां सुख मानी तेनो विश्वास करे छे, पण ते संयोगो पलटतां या तेनो वियोग थतां तेना कल्पेला सुखनो अंत आवे छे. ए रीते बाह्य संयोगोना विश्वासे ते छेतराय – ठगाय छे. वास्तवमां अनुकूळ के प्रतिकूळ लागता संयोगोमां क्यांय सुख नथी, छतां तेमां सुख मानी ठगाई जाय छे.
ज्ञानीने पोतानो आत्मा ज इष्ट छे – वहालो छे. तेने जगत – जगतना पदार्थो वहाला – सुखरूप लागता नथी. समकिती चक्रवर्तीने छ खंडनुं राज्य अने हजारो राणीओ वगेरेनो संयोग होय छे, पण तेमां तेने सुख माटे स्वप्नेय विश्वास नथी. तेने तो पोताना चैतन्यात्मानो ज विश्वास छे अने तेमां ज सुख भासे छे. तेने ‘जगत इष्ट नहि आत्मथी.’ ४९.
एवी रीते होय तो आहारादिमां पण अन्तरात्मानी प्रवृत्ति केम थाय? ते कहे छेः —
अन्वयार्थ : अन्तरात्मा (आत्मज्ञानात् परं) आत्मज्ञानथी भिन्न (कार्यं) कोई कार्यने