Samadhitantra-Gujarati (Devanagari transliteration).

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९२समाधितंत्र

टीकाचिरं बहुतरं कालं बुद्धौ न धारयेत् किं तत् ? कार्य कथम्भूतम् ? परमन्यत् कस्मात् ? आत्मज्ञानात् आत्मज्ञानलक्षणमेव कार्यं बुद्धौ चिरं धारयेदित्यर्थः परमपिकिञ्चिद् भोजनव्याख्यानादिकं वाक्कायाभ्यां कुर्यात् कस्मात् ? अर्थवशात् स्वपरोपकारलक्षणप्रयोजनवशात् किं विशिष्टः ? अतत्परस्तदनासक्तः ।।५०।। (चिरं) लांबा समय सुधी (बुद्धौ) पोतानी बुद्धिमां (न धारयेत्) धारण करे नहि. जो (अर्थवशात्) प्रयोजनवशात् (वाक्कायाभ्याम्) वचनकायथी (किंचित् कुर्यात्) कंईपण करवानो विकल्प करे तो ते (अतत्परः) अनासक्त थई करे.

टीका : चिरकाळ सुधी एटले बहु लांबाकाळ सुधी बुद्धिमां धारण न करे. शुं ते? कार्य. केवुं (कार्य)? पर एटले अन्य. कोनाथी (अन्य)? आत्मज्ञानथी (अन्य). आत्मज्ञानरूप कार्यने ज बुद्धिमां लांबा वखत सुधी धारी राखे एवो अर्थ छे, परंतु बीजुं किंचित् अर्थात् भोजनव्याख्यानादिकरूप कार्यने वचनकायद्वारा करे. शाथी? प्रयोजनवश अर्थात् स्वपरना उपकाररूप प्रयोजनवश (करे). केवा थईने (ते करे)? अतत्पर थईने अर्थात् तेमां अनासक्त थईने करे.

भावार्थ : ज्ञानी पोताना भावमनने (उपयोगने) आत्मज्ञानना कार्यमां ज रोके छे; आत्मज्ञानथी कोई अन्य व्यवहारिक कार्यमां लांबा वखत सुधी रोकतो नथी. कदाच प्रयोजनवशात् अर्थात् स्वपरना उपकारार्थे अस्थिरताने लीधे वचनकाय द्वारा आहार उपदेशादि कार्य करवानो विकल्प आवे, तो तेमां तेने अतन्मयभाव वर्ते छे.

विशेष

धर्मीने आत्मसंवेदन ए ज मुख्य कार्य छे. तेमां ज ते पोताना उपयोगने लगावे छे. कदाच लांबो समय स्वरूपमां स्थिर न रही शके अने प्रयोजनवशात् आहारउपदेशादिनो विकल्प आवे, तो ते कार्य अनासक्ति भावे (अतन्मय भावे) थाय छे. ते करवाने तेने मनमां उत्साह नथीभावना नथी. कार्यने अंगे शरीरवाणीनी जे क्रिया थाय छे तेमां तेने एकता बुद्धि के कर्ताबुद्धि तो नथी ज, पण ते क्रिया करवाना विकल्पने पण ते भलो मानतो नथी. विकल्पने तोडी स्वरूपमां स्थिर थई हुं शुद्धात्माने क्यारे अनुभवुं, एवी तेने निरंतर भावना होय छे, आ भावनाना बळथी तेनो उपयोग बहारनी क्रियामां लांबो वखत टकतो नथी, त्यांथी हठी तुरत स्व तरफ वळे छे.

ज्ञानीने नीचली भूमिकामां अस्थिरताने लीधे राग होय छे अने वचनकायनी क्रिया प्रत्ये लक्ष जाय छे, पण पोताना ज्ञानस्वभावने भूले तेवी तेनामां आसक्ति होती नथी.