तेना पर्यायो साथेनो संबंध मात्र व्यवहारनये संयोगरूप के निमित्तरूप छे एवुं ज्ञान कराववामां आवे छे.
आ द्रष्टिए पर द्रव्यो साथेनो संबंध असद्भूत – असत्य होवाथी ते संबंधीनुं ज्ञान करावनारा नयने ‘व्यवहारनय’ कहेवामां आवे छे अने जीवना द्रव्य – गुण – पर्याय पोताना होवाथी ते सद्भूत – सत्य होवाथी ते संबंधीनुं ज्ञान करावनारा नयने ‘निश्चयनय’ कहेवामां आवे छे.
पण पहेला प्रकारनुं भेदज्ञान करवा मात्रथी ज सम्यग्दर्शनज्ञान थतुं नथी. अनादिथी जीवनो पर्याय अशुद्ध छे. तेने पोतामां थतो होवानी अपेक्षाए ‘निश्चयनय’नो विषय कहे छे, तो पण ते परना आश्रये थतो होवाथी तेने व्यवहारनयनो पण विषय कहेवाय छे. वळी शुद्ध पर्यायो पण जीवनुं त्रिकाली स्वरूप नथी, तेम ज तेना आश्रये तथा गुणभेदना आश्रये विकल्प उत्पन्न थाय छे तेथी तेनो आश्रय छोडाववा माटे तेने पण व्यवहार कहेवामां आवे छे अने जीव द्रव्यनुं त्रिकाली शुद्धस्वरूप के जे ध्रुव छे तेने ‘निश्चय’ कहेवामां आवे छे केम के तेने आश्रये ज धर्मनी शरूआत – तेनुं टकवुं
‘‘.......सिद्ध भगवंतो सिद्धपणाने लीधे, साध्य जे आत्मा तेना प्रतिच्छंदना (प्रतिबिंबना) स्थाने छे – जेमना स्वरूपनुं संसारी भव्य जीवो चिंतवन करीने, ते समान पोताना स्वरूपने ध्यावीने, तेमना जेवा थई जाय छे.....’’
‘‘संसारीने शुद्ध आत्मा साध्य छे अने सिद्ध साक्षात् शुद्धात्मा छे तेथी तेमने नमस्कार करवा उचित छे......’’
वळी श्री मोक्षमार्गप्रकाशक – गु. आवृत्ति पृ. ३मां सिद्ध२ भगवाननुं स्वरूप बतावतां कह्युं छे के –
‘‘.......जेना ध्यान वडे भव्य जीवोने स्वद्रव्य – परद्रव्यनुं उपाधिक भाव तथा १. जुओः श्री समयसार – श्री रायचंद्र ग्रन्थमाळा – श्री जयसेनाचार्य टीका – गाथा ५७; पृ. १०१; गाथा
२. श्री समयसार – नवी गु. आवृत्ति पृ. ६, ७.