विष्णवे केवलज्ञानेनाशेषवस्तुव्यापकाय । जिनाय अनेकभवगहनप्रापहेतून् कर्मारातीन् जयतीति
जिनस्तस्मै । सकलात्मे सह कलया शरीरेण वर्तत इति सकलः सचासावात्मा च तस्मै नमः ।।२।।
कर्युं छे तेवा सुगतने, ‘विष्णुने१ – जेओ केवळज्ञान द्वारा अशेष (समस्त) वस्तुओमां व्यापक छे एवाने, ‘जिने’२ – अनेक भवरूपी अरण्यने (वनने) प्राप्त कराववाना कारणभूत कर्मशत्रुओने जेमणे जीत्या छे ते जिनने – एवा सकलात्माने – कल एटले शरीर सहित जे वर्ते छे ते सकल; अने सकल अर्थात् सशरीर आत्मा ते ‘सकलात्मा’ – तेमने नमस्कार हो! (२)
भावार्थ : जेओ तीर्थंकर छे, शिव छे, विधाता छे, सुगत छे, विष्णु छे तथा समवरणादि वैभव सहित छे अने भव्य जीवोने कल्याणरूप जेमनी दिव्य वाणी (दिव्य ध्वनि) मुखेथी नहि पण सर्वांगेथी इच्छा वगर छूटे छे अने जयवंत वर्ते छे ते सशरीर शुद्धात्माने अर्थात् जीवनमुक्त अरहंत परमात्माने अहीं नमस्कार कर्या छे.
आ पण मांगलिक श्लोक छे. तेमां ग्रन्थकारे श्री अरहंत भगवानने अने तेमनी दिव्य ध्वनिने नमस्कार कर्या छे.
ताळु – ओष्ठ वगेरेनी क्रियारहित अने इच्छारहित तेमनी वाणी जयवंत वर्ते छे, तेओ तीर्थना कर्ता छे अर्थात् जीवोने मोक्षनो मार्ग बतावनारा छे – हितोपदेशी छे, तेमने मोहना अभावने लीधे कोई पण प्रकारनी इच्छा शेष रही नथी अर्थात् तेओ वीतराग छे अने ज्ञानावरणादि चार घातियां कर्मोनो नाश थवाथी तेमने अनंतज्ञानादि गुणो प्रगट थया छे अर्थात् तेओ ‘सर्वज्ञ’ छे.
वळी तेओ शिव छे, धाता छे, सुगत छे, विष्णु छे, जिन छे अने सकलात्मा छे. आ बधां तेमनां गुणवाचक नामो छे.
ते दिव्य वाणी छे. ते भगवानना सर्वांगेथी इच्छा विना छूटे छे, सर्व प्राणीओने हितरूप छे अने निरक्षरी छे.
वळी भगवानना दिव्यध्वनिने देव, मनुष्य, तिर्यंचादि सर्व जीवो पोतपोतानी भाषामां १. विश्वं हि द्रव्यपर्यायं विश्वं त्रैलोक्यगोचरम् ।
२. रागद्वेषादयो येन जिताः कर्म-महाभटाः ।