टीका — इन्द्रियद्वारैरिन्द्रियमुखैः कृत्वा स्फु रितो बहिरर्थग्रहणे व्यापृतः सन् बहिरात्मा मूढात्मा । आत्मज्ञानपराङ्मुखो जीवस्वरूपज्ञानाद्वहिर्भूतो भवति । तथाभूतश्च सन्नसौ किं करोति ? स्वात्मनो देहमात्मत्वेनाध्यवस्यति आत्मीयशरीरमेवाहमिति प्रतिपद्यते ।।७।।
अन्वयार्थ : (बहिरात्मा) बहिरात्मा (इन्द्रियद्वारैः) इन्द्रिय द्वारोथी (स्फु रित) बाह्य पदार्थोने ज ग्रहण करवामां प्रवृत्त होवाथी (आत्मज्ञानपराङ्मुखः) आत्मज्ञानथी पराङ्मुख – वंचित होय छे; तेथी ते (आत्मनः देह) पोताना शरीरने (आत्मत्वेन अध्यवस्यति) मिथ्या अभिप्रायपूर्वक आत्मारूप समजे छे.
टीका : इन्द्रियोरूप द्वारोथी अर्थात् इन्द्रियोरूप मुखथी बहारना पदार्थोना ग्रहणमां रोकायेलो होवाथी ते बहिरात्मा – मूढात्मा छे. ते आत्मज्ञानथी पराङ्मुख अर्थात् जीवस्वरूपना ज्ञानथी बहिर्भूत छे. तेवो थयेलो ते (बहिरात्मा) शुं करे छे? पोताना देहने आत्मारूपे माने छे अर्थात् पोतानुं शरीर जे ‘हुं छुं’ एवी मिथ्या मान्यता करे छे.
भावार्थ : बहिरात्मा इन्द्रियोद्वारा जे बाह्य मूर्तिक पदार्थो ग्रहण करे छे तेने मोहवशात् पोताना माने छे. तेने अंदर आत्मतत्त्वनुं कंई पण ज्ञान नथी; तेथी ते पोताना शरीरने ज आत्मा समजे छे – अर्थात् शरीर, मन अने वाणीनी क्रिया जे जडनी क्रिया छे तेने पोते करी शके छे अने तेनो पोते स्वामी छे एम माने छे.
जीव त्रिकाली ज्ञानस्वरूप छे. तेने बहिरात्मा अज्ञानवश जाणतो नथी अने बाह्य इन्द्रियगोचर पदार्थो जे मात्र ज्ञेयरूप छे तेमां इष्ट – अनिष्टनी कल्पना करी पोताने सुखी – दुःखी, धनवान – निर्धन, बलवान – निर्बल, सुरूप – कुरूप, राजा – रंक वगेरे होवानुं माने छे. ✽