२८समाधितंत्र
टीका — व्यापार – व्याहाराकारादीना स्वदेहसदृशं परदेहं दृष्ट्वा । कथंम्भूतं ? परात्मनाधिष्ठितं कर्मवशात्स्वीकृतं अचेतनं चेतनेन संगतं । मूढो बहिरात्मा परत्वेन परात्मत्वेन अध्यवस्यति ।।१०।। कर्मनिमित्तथी औपाधिकभाव छे; वळी वर्णादिक छे ते पोताना गुणो नथी पण शरीरादि पुद्गलना गुणो छे; शरीरादिमां पण वर्णादिनुं वा परमाणुनुं पलटावुं नाना प्रकाररूप थया करे छे. ए सर्व पुद्गलनी अवस्थाओ छे, परंतु ते सर्वने आ जीव पोतानुं स्वरूप जाणे छे. तेने स्वभाव – परभावनो विवेक थई शकतो नथी.’’१ ८ – ९
स्वदेहमां आवो अध्यवसाय करनार बहिरात्मा परदेहमां केवो अध्यवसाय करे छे, ते कहे छे –
अन्वयार्थ : (मूढः) अज्ञानी बहिरात्मा, (परमात्माधिष्ठितं) बीजाना आत्मा साथे रहेला (अचेतनं) अचेतन – चेतनारहित (परदेहं) बीजाना शरीरने, (स्वदेहसदृशं) पोताना शरीर समान (दृष्ट्वा) जोईने (परत्वेन) बीजाना आत्मारूपे (अध्यवस्यति) माने छे.
टीका : व्यापार, व्याहार (वाणी, वचन) आकारादिवडे परदेहने पोताना देह समान जोईने – केवो (जोईने)? कर्मवशात् बीजाना आत्माथी अधिष्ठित – स्वीकृत अचेतन (परना देहने) चेतनायुक्त जोईने बहिरात्मा तेने (देहने) परपणारूप – अर्थात् परना आत्मारूपे माने छे. ✽
१. मोक्षमार्गप्रकाशक गु. आवृत्ति – पृ. ४२.