टीका – विभ्रमो विपर्यासः पुंसां वर्तते ? किं विशिष्टानां ? अविदितात्मनां अपरिज्ञातात्मस्वरूपाणां । केन कृत्वाऽसौ वर्तते ? स्वपराध्यवसायेन । क्व ? देहेषु । कथम्भूतो
भावार्थ : अज्ञानी बहिरात्मा, जेवी रीते पोताना शरीरने पोतानो आत्मा माने छे तेवी रीते बीजाना (स्त्री – पुत्र – मित्रादिकना) अचेतन शरीरने तेमनो (स्त्री – पुत्र – मित्रादिकनो आत्मा) माने छे.
जेम पोताना शरीरनो नाश थतां, बहिरात्मा पोतानो नाश समजे छे, तेम स्त्री – पुत्र – मित्रादिना शरीरनो नाश थतां ते तेमना आत्मानो नाश समजे छे. एम ते पोताना शरीरमां आत्मबुद्धि – आत्मकल्पना – करी दुःखी थाय छे, अने बीजाओ पण शरीरनी प्रतिकूळताना कारणे दुःखी थाय छे एम माने छे. १०.
एवा प्रकारना अध्यवसायथी शुं थाय छे ते कहे छे —
अन्वयार्थ : (अविदितात्मनां पुंसां) आत्माना स्वरूपथी अज्ञान पुरुषोने, (देहेषु) (स्वपराध्यवसायेन) पोतानी अने परनी आत्मबुद्धिना कारणे (पुत्रभार्यादिगोचरः) पुत्र – स्त्री – आदिकना विषयमां (विभ्रमः वर्तते) विभ्रम वर्ते छे.
टीका : पुरुषोने विभ्रम अर्थात् विपर्यास (मिथ्याज्ञान) वर्ते छे. केवा पुरुषोने? आत्माथी अजाण – आत्मस्वरूपने नहि जाणनारा – पुरुषोने. शाथी करीने ते (विभ्रम) वर्ते छे? स्वपरना अध्यसायथी. (विभ्रम) क्यां थाय छे? शरीरो विषे. केवो विभ्रम थाय छे? पुत्र – ✽