टीका — तस्माद्विभ्रमाद्बहिरात्मनि संस्कारो वासना दृढोऽविचलो जायते । किन्नामा ? अविद्यासंज्ञितः अविद्या संज्ञाऽस्य संजातेति ‘‘तारकादिभ्य इतच्’’ येन संस्कारेण कृत्वालोको- ऽविवेकिजनः । अंगमेव च शरीरमेव । स्वं आत्मानं । पुनरपि जन्मान्तरेऽपि । अभिमन्यते ।।१२।। जाणे छे, पण ए तो पोतपोताने आधीन कोई आवे, कोई जाय तथा कोई अनेक अवस्थारूप परिणमे – एम तेनी पराधीन क्रिया होय छे, तेने पोताने आधीन मानी आ जीव खेदखिन्न थाय छे.’’२ ११.
एवा प्रकारना विभ्रमथी शुं थाय छे? ते कहे छेः –
अन्वयार्थ : (तस्मात्) ए विभ्रमथी (अविद्यासंज्ञितः) अविद्या नामनो (संस्कारः) (दृढः) द्रढ – मजबूत (जायते) थाय छे, (येन) जे कारणथी (लोकः) अज्ञानी जीव (पुनः अपि) जन्मान्तरमां पण (अंगम् एव) शरीरने ज (स्वं अभिमन्यते) आत्मा माने छे.
टीका : ते विभ्रमथी बहिरात्मामां संस्कार एटले वासना द्रढ – अविचल थाय छे. कया नामनो (संस्कार)? अविद्या नामनो (संस्कार) – अविद्या संज्ञा जेनी छे ते – जे संस्कारने लीधे अविवेकी (अज्ञानी) जन अंगने ज एटले शरीरने ज फरीथी पण, अर्थात् अन्य जन्ममां पण पोतानो आत्मा माने छे.
भावार्थ : आ जीवने अज्ञानजनित अविद्या संस्कार अनादिकालथी छे, स्त्री – पुत्रादि पर पदार्थोमां आत्मबुद्धि करवाथी आ संस्कार द्रढ थाय छे अने तेने लीधे अन्य जन्ममां पण जीव शरीरने ज आत्मा माने छे. ✽
२. मोक्षमार्ग प्रकाशक, गु. आवृत्ति – पृ. ५२.