Samadhitantra-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 12.

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समाधितंत्र३१
एवंविधविभ्रामाच्च किं भवतीत्याह
अविद्यासंज्ञितस्तस्मात्संस्कारो जायते दृढः
येन लोकोऽङ्गमेव स्वं पुनरप्यभिमन्यते ।।१२।।

टीकातस्माद्विभ्रमाद्बहिरात्मनि संस्कारो वासना दृढोऽविचलो जायते किन्नामा ? अविद्यासंज्ञितः अविद्या संज्ञाऽस्य संजातेति ‘‘तारकादिभ्य इतच्’’ येन संस्कारेण कृत्वालोको- ऽविवेकिजनः अंगमेव च शरीरमेव स्वं आत्मानं पुनरपि जन्मान्तरेऽपि अभिमन्यते ।।१२।। जाणे छे, पण ए तो पोतपोताने आधीन कोई आवे, कोई जाय तथा कोई अनेक अवस्थारूप परिणमेएम तेनी पराधीन क्रिया होय छे, तेने पोताने आधीन मानी आ जीव खेदखिन्न थाय छे.’’ ११.

एवा प्रकारना विभ्रमथी शुं थाय छे? ते कहे छेः

श्लोक १२

अन्वयार्थ : (तस्मात्) ए विभ्रमथी (अविद्यासंज्ञितः) अविद्या नामनो (संस्कारः) (दृढः) द्रढमजबूत (जायते) थाय छे, (येन) जे कारणथी (लोकः) अज्ञानी जीव (पुनः अपि) जन्मान्तरमां पण (अंगम् एव) शरीरने ज (स्वं अभिमन्यते) आत्मा माने छे.

टीका : ते विभ्रमथी बहिरात्मामां संस्कार एटले वासना द्रढअविचल थाय छे. कया नामनो (संस्कार)? अविद्या नामनो (संस्कार)अविद्या संज्ञा जेनी छे तेजे संस्कारने लीधे अविवेकी (अज्ञानी) जन अंगने ज एटले शरीरने ज फरीथी पण, अर्थात् अन्य जन्ममां पण पोतानो आत्मा माने छे.

भावार्थ : आ जीवने अज्ञानजनित अविद्या संस्कार अनादिकालथी छे, स्त्रीपुत्रादि पर पदार्थोमां आत्मबुद्धि करवाथी आ संस्कार द्रढ थाय छे अने तेने लीधे अन्य जन्ममां पण जीव शरीरने ज आत्मा माने छे.

मिच्छाणाणेसु रओ मिच्छाभावेण भाविओ संतो
मोहोदयेण पुणरवि अंगं संम्मण्णए मणुओ ।।११।।मोक्षप्राभृते, कुन्दकुन्दाचार्यः

२. मोक्षमार्ग प्रकाशक, गु. आवृत्तिपृ. ५२.

आ भ्रमथी अज्ञानमय द्रढ जामे संस्कार;
अन्य भवे पण देहने आत्मा गणे गमार. १२.