३२समाधितंत्र
अनादि अज्ञानताना कारणे आ जीवने जे पर्याय (शरीर) प्राप्त थाय छे तेने ते पोतानो आत्मा समजी ले छे अने तेनो आवो अज्ञानात्मक संस्कार जन्म – जन्मान्तरोमां पण बन्यो रहेवाथी ते द्रढ थतो जाय छे. जेम रस्सीना घसाराथी कूवाना पत्थरमां कापो वधु ने वधु ऊंडो पडतो जाय छे, तेम अविद्याना संस्कारो पण अज्ञानी जीवमां वधु ने वधु ऊंडा ऊतरता जाय छे.
अविद्याना संस्कारोथी प्रेराई आ जीव शरीरादि पर पदार्थो विषे आत्मबुद्धि करे छे. पोताने परनो कर्ता – भोक्ता माने छे, पर प्रत्ये अहंकार – ममकार बुद्धि ने एकताबुद्धि करे छे. आ कारणथी तेने राग – द्वेष थाय छे अने राग – द्वेषथी तेनुं संसार – चक्र चालु ज रहे छे. १२.
एवी रीते मानीने ते शुं करे छे? ते कहे छेः –
अन्वयार्थ : (देहे स्वबुद्धिः) शरीरमां आत्मबुद्धि करनार बहिरात्मा (निश्चयात्) निश्चयथी (आत्मानं) पोताना आत्माने (एतेन) तेनी साथे – शरीरनी साथे (युनक्ति) जोडे छे – संबंध करे छे, अर्थात् बंनेने एकरूप माने छे, परंतु (स्वात्मनि एव आत्मधीः) पोताना आत्मामां ज आत्मबुद्धि करनार अंतरात्मा (देहिनं) पोताना आत्माने (तस्मात्) तेनाथी – शरीरथी (वियोजयति) पृथक् – अलग करे छे.
टीका : शरीरमां १स्वबुद्धि – आत्मबुद्धि करनार बहिरात्मा शुं करे छे? ते (पोताना) १. पाटण – जैन भंडारनी प्रत आधारे ‘समाधिशतक’नी टीकाना अनुवादमां श्रीयुत मणिलाल नभुभाई
राखे छे, अर्थात् दीर्घ संसारतापमां पाडे छे......’’