Samadhitantra-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 13.

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३२समाधितंत्र

एवमभिमन्यमानश्चासौ किं करोतीत्याह
देहे स्वबुद्धिरात्मानं युनक्त्येतेन निश्चयात्
स्वात्मन्येवात्मधीस्तस्माद्वियोजयति देहिनं ।।१३।।
टीकादेहे स्वबुद्धित्मबुद्धिरार्बहिरात्मा किं करोति ? आत्मानं युनक्ति सम्बद्धं करोति

अनादि अज्ञानताना कारणे आ जीवने जे पर्याय (शरीर) प्राप्त थाय छे तेने ते पोतानो आत्मा समजी ले छे अने तेनो आवो अज्ञानात्मक संस्कार जन्मजन्मान्तरोमां पण बन्यो रहेवाथी ते द्रढ थतो जाय छे. जेम रस्सीना घसाराथी कूवाना पत्थरमां कापो वधु ने वधु ऊंडो पडतो जाय छे, तेम अविद्याना संस्कारो पण अज्ञानी जीवमां वधु ने वधु ऊंडा ऊतरता जाय छे.

अविद्याना संस्कारोथी प्रेराई आ जीव शरीरादि पर पदार्थो विषे आत्मबुद्धि करे छे. पोताने परनो कर्ताभोक्ता माने छे, पर प्रत्ये अहंकारममकार बुद्धि ने एकताबुद्धि करे छे. आ कारणथी तेने रागद्वेष थाय छे अने रागद्वेषथी तेनुं संसारचक्र चालु ज रहे छे. १२.

एवी रीते मानीने ते शुं करे छे? ते कहे छेः

श्लोक १३

अन्वयार्थ : (देहे स्वबुद्धिः) शरीरमां आत्मबुद्धि करनार बहिरात्मा (निश्चयात्) निश्चयथी (आत्मानं) पोताना आत्माने (एतेन) तेनी साथेशरीरनी साथे (युनक्ति) जोडे छे संबंध करे छे, अर्थात् बंनेने एकरूप माने छे, परंतु (स्वात्मनि एव आत्मधीः) पोताना आत्मामां ज आत्मबुद्धि करनार अंतरात्मा (देहिनं) पोताना आत्माने (तस्मात्) तेनाथी शरीरथी (वियोजयति) पृथक्अलग करे छे.

टीका : शरीरमां स्वबुद्धिआत्मबुद्धि करनार बहिरात्मा शुं करे छे? ते (पोताना) १. पाटणजैन भंडारनी प्रत आधारे ‘समाधिशतक’नी टीकाना अनुवादमां श्रीयुत मणिलाल नभुभाई

त्रिवेदीए नीचे प्रमाणे लख्युं छेः
‘‘बहिरात्माने देहने विषे ज आत्मबुद्धि छे, ने ते आत्माने परमानंद न पामवा देतां, देहमां ज बांधी
राखे छे, अर्थात् दीर्घ संसारतापमां पाडे छे......’’
देहबुद्धि जन आत्मने करे देहसंयुक्त,
आत्मबुद्धि जन आत्मने तनथी करे विमुक्त. १३.